जुम्मा जुम्मा दो ही दिन तो हुए थे हमें (मुझे) हिन्दी में चिट्ठा शुरु किये कि मसिजीवी का ये चिट्ठा पढ़ा. (जबसे इंटरनैट पर चिट्ठा पढ़ना प्रारम्भ किया काफ़ी लोगो को खुद को “हम” पुकारते देखा.तब समझ में नहीं आया कि मैं खुद को क्या पुकारूं “मैं” या “हम”. फ़िर सोचा कि हिन्दी व्याकरण के अनुसार तो “मैं” ही होना चाहये.) . पहले सोचा था कि कल ही एक नया चिट्ठा लिख डालूं फ़िर सोचा कि चलो एक बार पहले के कुछ hindi blogs पढ़े जायें .
इंटरनैट पर हिन्दी की चिट्ठाकारी को कुछ ही दिन हुए हैं पर इतने ही दिनों में इतने सारे वाद विवाद हो गये कि लगता है हम लोग बहुत जल्दी में हैं. वाद विवाद भी किसलिये .. क्योंकि हम चाहते हैं कि हिन्दी का इंटरनैट पर भी बोल बाला हो.. पर यहां हम य़ह भूल जाते हैं कि इंटरनैट भी एक माध्यम ही है बस ..इसमें बाकी वही चीजें रहनी हैं जो कि सामान्यतः हिन्दी लेखन में हैं .. वैसे तो कई सारी चीजे अच्छी बुरी लगीं दो प्रमुख चीजों ने बहुत उद्वेलित किया 1. आचार संहिता बनाने का प्रयास 2. मुखोटों की मारामारी
कल ही एक लेख आया जिसमें आचार संहिता को मजाकिया लहजे में दिखाने का प्रयास किया .लेकिन ये तो मजाक था यदि इसे गम्भीरता से सोचें तो ये कोई मजाक नही है ..हिन्दी चिट्ठाकारी को हम क्यों पत्रकारिता की श्रेणी में रखते हैं ..यह भी तो हिन्दी लेखन ही है सिर्फ माध्यम अलग है …तो जब उसमें कोइ आचार संहिता नहीं तो यहाँ हम ऎसी बातें क्यों करें…हिन्दी लेखन में ऎसे बहुत उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ वो सभी शब्द प्रयोग किये गये हैं जिन्हे हम यहाँ अछूत मान रहे हैं ..क्या आपने “ राही मासूम रज़ा” का “ आधा गाँव “ नही पढ़ा… और फिर किसे यह हक है कि वो आचार संहिता बनाये ?.. इंटरनैट एक खुला माध्यम (open platform) है ..इसे खुला ही रहने दें इसकी सुन्दरता व भलाई भी इसी में है… यहां मैं इस चीज की वकालत नही कर रहा कि चिट्ठों में “अछूत भाषा “ का प्रयोग हो बल्कि यह कि इसके निर्धारण का अधिकार लेखक के वजाय पाठक को हो… वैसे भी इंटरनैट हमें मुक्त करता है फिर हम इसे क्यों सीमाओं में बाँधने का प्रयास करें.. कमप्यूटर की दुनियां में आज एक बहुत बड़ा तबका स्वतंत्रता के अधिकार की बात करते हुए (open source software) माइक्रोसोफ्ट जैसी बड़ी कंपनी से लोहा लेता है वहीं हम इसे…..खैर अभी इतना ही. बाकी अगली पोस्ट में..
एक शिकायत.. “चिट्ठा चर्चा” में दीप्ती पंत के नये चिट्ठे का जिक्र हुआ मेरे चिट्ठे का नहीं… क्या चर्चा के लिये “स्त्रीलिंग” होना आवश्यक है..यदि ऎसा है तो मैं भी फिर जे. ऎल. सोनार की तर्ज पर नया मुखोटा लगाऊं..:-)
मार्च 19, 2007 at 1:39 पूर्वाह्न
‘मैं” शब्द ही सही है, हास्य की पुट देने के लिए हम शब्द का प्रयोग किया जाता है.
चिट्ठाचर्चा में लिंग भेद नहीं होता.
मार्च 19, 2007 at 1:52 पूर्वाह्न
“…इंटरनैट एक खुला माध्यम (open platform) है ..इसे खुला ही रहने दें इसकी सुन्दरता व भलाई भी इसी में है…..”
मेरा भी यही मानना है. बाकी, आपका कहना है-
“…एक शिकायत.. “चिट्ठा चर्चा” में दीप्ती पंत के नये चिट्ठे का जिक्र हुआ मेरे चिट्ठे का नहीं… क्या चर्चा के लिये “स्त्रीलिंग” होना आवश्यक है..यदि ऎसा है तो मैं भी फिर जे. ऎल. सोनार की तर्ज पर नया मुखोटा लगाऊं..:-)…”
तो आज का चिट्ठा-चर्चा अवश्य पढ़ें
मार्च 19, 2007 at 3:01 पूर्वाह्न
आपका स्वागत है!
वैसे मै भी १ महीना पुरानी हू।
एक राय है। माने ,यह कोइ ज़रूरी नही।
template बदल सके तो अच्छा रहेगा।
मार्च 19, 2007 at 3:01 पूर्वाह्न
बात अच्छी लगी. पर मुझे लगता है ब्लोगिंग पत्रकारिता नहीं है, न ही साहित्य हैं, ब्लोगिंग लेखन की एक अलग परमपरा है. इसमे पत्रकारिता के शोध भी है, समाज का दर्पण भी है और व्यक्ति के खुद के विचार इन दोनों से ज्यादा है. यह माध्यम हाल में रोजी रोटी या कमाई के बजाय स्वांत सुखाय ज्यादा है इसलिये यहा लेखक के सामने किसी किसम की कोई रुकावट नहीं कोई बंदिश भी नही है और मजबूरी भी नही है अतं हर कोई मन की कर सकता है. मैं समझता हू जब सबको मन की करने की पूरी छूट होती है तब यह ज्यादा जरूरी हो जाता है कि एक आचार संहिता हो. अपनी मन की करने के चचक्कर में हम दूसरों के मन को चोट न पहुंचाने लगे. मेरा ऐसा मानना है.
मार्च 19, 2007 at 3:18 पूर्वाह्न
भाई, ये समझ में आता है कि हिन्दी के क्षेत्र में शोध करने वालों और कराने वालों के लिए घिस-पीट के अप्रासंगिक हो चुके विषयों की नीरसता से बचने के लिए ऑनलाइन हिन्दी की तरफ रुख करना जरूरी हो गया है। लेकिन ब्लॉगिंग के प्रयोजन और प्रकृति को समझे बगैर और खुद उसमें गहरे उतरे बगैर आप लोग इतने पंडिताऊ ढंग से बातें करने लग जाते हो, यह समझ में नहीं आता।
ब्लॉगिंग यदि पत्रकारिता नहीं है तो कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का हिन्दी विभाग भी नहीं है। मुखौटे लगाने का शौक है, लगाओ। लेकिन गैंगबाजी मत करो। तकनीक तुम्हारी असलियत की पोल खोल रहा है।
मार्च 19, 2007 at 3:30 पूर्वाह्न
काकेश जी
जिस आचार संहिता की बात आप कर रहे हैं वह “नारद” पर पंजीकृत चिट्ठों के लिये है, ना कि इन्टरनेट पर लिखे जा रहे सारे लेखन के लिये।
मार्च 19, 2007 at 4:56 पूर्वाह्न
मेरी उपर्युक्त टिप्पणी अन्यत्र पोस्ट की जानी थी, लेकिन असावधानीवश यहाँ पेस्ट हो गई।
काकेश जी, शुरुआती पोस्ट ही आपने झटका देने के लिए की है। थोड़ा समझ लीजिए, रम जाइए, जम जाइए, फिर झटका भी दीजिएगा। ऐसा नहीं है कि किसी नए चिट्ठाकार को इसका हक नहीं है। लेकिन आप दूसरों की पोस्ट के आधार पर हिन्दी चिट्ठाकारी के बारे में अपनी धारणा न बनाएँ।
वैसे, विवादों से शुरुआत करना अपनी तरफ ध्यान आकर्षित कराने का पुराना फंडा रहा है। बहरहाल, आपका स्वागत है।
मार्च 19, 2007 at 6:01 पूर्वाह्न
इसे बोलते है तू कौन खांमखा, क्यों पिले, बस हॉबी है।
भैया, पहले बात को समझिए तो। हमने कभी भी चिट्ठों की आचार संहिता की बात नही की। जो सभी लोग स्वतन्त्रता की बात करने आ गए।
हम नारद पर शामिल होने वाले चिट्ठों की आचार संहिता की बात कर रहे है। आपकी जानकारी के लिए बता दें, हिन्दी मे हजारो विषयों पर लिखा जाता है, पोर्नो से लेकर, तन्त्र मन्त्र विद्या तक, हमने वे चिट्ठे नारद पर शामिल नही किए। लेकिन हमने उनको लिखने से रोका क्या? नही, तो फिर काहे का बवाल?
दूसरे तरीके से समझिए, हो सकता है हम में से कुछ लोग गाली गलौच करने के शौकीन हो, हो भी सकता है (इनका पुलिस मे अच्छा कैरियर होगा), लेकिन क्या वे ही बन्धु अपने घर पर गाली गलौच करेंगे? अपने परिवार के बीच गाली गलौच करेंगे? शायद नही। मेरे विचार से यही आचार संहिता की बात मै कहना चाहता हूँ। उसके बाद भी आप बिना समझे पिल्लम पिल्ली करना चाहो तो आपकी मर्जी।
मार्च 19, 2007 at 1:13 अपराह्न
देखिए आचार संहिता रविजी ने बना दी है। सृजन जी यहॉं वहॉं मत पूछो कहॉं कहॉं संतोषी मॉं की तर्ज पर उसका पालन भी कर रहे हैं। लेकिन हम तो उसी विश्वविद्यालयी भाषा में जारी रहने वाले हैं।
ये तकनीक वकनीक से जासूसी छोड़ लोग क्यों नहीं किसी रचनात्मक काम में ऊर्जा लगाते।
मार्च 19, 2007 at 4:36 अपराह्न
ऊपर योगेश समदर्शी, सागर चंद नाहर और जीतू भैया वाली ही टिप्पणियाँ हमारी भी समझी जाएं। बाकी अपने विचार अपने चिट्ठे पर ब्लॉगियायेंगे।
मार्च 19, 2007 at 9:55 अपराह्न
गैन्गबाज़ी ????
मार्च 20, 2007 at 5:21 पूर्वाह्न
अरे काकेश जी ये आचार सहिता से मुक्ती की बात बिल्कुल सोला आने सही है लेकिन ईस्का जम कर विरोध भी करते है खासकर वो लोग जिनको किसी भी नऎ ब्लोगर से ,जो पहली बार मे हि कुछ अच्छा लिख देता है, कुछ insecurity सी हो जाती है ।
बिल्कुल मुक्त हो कर अपने विचार व्यक्त करते रहे।
मार्च 22, 2007 at 11:02 अपराह्न
[…] 22nd, 2007 ब्लोग की दुनिया बड़ी निराली है . जब आप विवदित हो तो आपको हिट्स भी मिलती हैं और […]
अप्रैल 5, 2007 at 1:15 पूर्वाह्न
[…] हमने चिट्ठाकारिता शुरू की तो कुछ ‘शुरुआती झटके’ लगे …. हुआ यूं कि हम इतने बड़े जुरासिक […]