एक मिठाई खाने वाली खबर ये है कि हिन्दी चिट्ठाजगत में व्यंग्य के सुपरस्टार और हमारे सह ब्लॉगर आलोक पुराणिक की पुस्तक का आज विमोचन हुआ. आप सोच रहे होंगे कि पक्का कोई “प्रपंच तंत्र” टाईप व्यंग्य-पुस्तक होगी. यही सोच रहे हैं ना ..आप सोचिये ..सोचने में क्या है ..हम भी कुछ दिनों पहले राष्ट्रपति बनने की सोच ही रहे थे ना.. जी नहीं यह कोई व्यंग्य पुस्तक नहीं है… यह पुस्तक है आर्थिक-पत्रकारिता पर.
लीजिये पेश है एक रिपोर्ट –एक्सक्लूसिवली फॉर हिन्दी चिट्ठाजगत…
पुस्तक विमोचन
मैथिलीशरण गुप्त बजट की बहस कविता में करते थे
23 जुलाई, 2007 सोमवार को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आलोक पुराणिक की पुस्तक-आर्थिक पत्रकारिता का विमोचन हुआ, इसमें तमाम रोचक जानकारियों के साथ यह तथ्य भी प्रकाश में आया कि प्रख्यात कवि मैथिलीशरण गुप्त संसद में बजट की बहस में अपना पक्ष कविता के जरिये ही रखते थे। प्रभात प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित यह किताब आजादी के बाद हिंदी की आर्थिक पत्रकारिता को देखने –परखने का प्रयास करती है। आजादी के बाद के करीब साठ सालों की यात्रा में बहुत कुछ बदला है, पर पर बहुत कुछ ऐसा भी है, जो नहीं बदला है। किताब यह रेखांकित करने की कोशिश करती है कि आजादी के बाद के वर्षों में आर्थिक पत्रकारिता की मुख्य प्रवृत्तियां क्या रही हैं। आजादी के ठीक पहले हिंदी अखबारों में उद्योगों, कृषि मंडियों और बाजारों की रिपोर्टें, सर्राफा बाजार की रिपोर्टों होती थीं। इसके अलावा भारत-ब्रिटिश आर्थिक संबंधों पर लेख भी हिंदी अखबारों में दिखायी पड़ते थे। खाद्यान्न से जुड़े मसलों को खासा महत्व दिया जाता था। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक पर समाचार लेख छापे जाते थे। आजादी के बाद के एक दशक में परिदश्य कुछ बदला।
1947 से 1956 की अवधि में हिदी की आर्थिक पत्रकारिता की व्याख्यात्मक भूमिका सामने आयी। अर्थव्यवस्था से जुड़े नये –नये कानून बन रहे थे। नये नियम आ रहे थे, उनकी व्याख्या करने का काम भी अखबार कर रहे थे। बजट कवरेज में आम आदमी से जुड़े आइटमों की चिंता लगातार की जाती थी। खाद्यान्न से जुड़े मसलों पर अखबार बहुत संवेदनशील थे। योजना से जुड़े मसलों पर कौतूहल का भाव तो था ही, साथ ही इसका विश्लेषण भी लगातार चल रहा था। समाजवाद, निजी उपक्रम बनाम सार्वजनिक उपक्रम जैसी बहसों की शुरुआत इस दशक में हुई। 1
इस दौर की हिंदी पत्रकारिता में ठेठ हिंदी के ठाठ भी देखने में आते थे। उदाहरण के लिए -हिंदुस्तान 7 मार्च, 1956 पहला पेज दो कालम की खबर है, जिसमें प्रख्यात कवि मैथिलीशरण गुप्त ने कवितामय अंदाज में बजट से जुड़े सवाल पूछे हैं-
–आह कराह न उठने दे जो शल्य वैद्य है वही समर्थ—राष्ट्रकवि की दृष्टि में बजट- हमारे संवाददाता द्वारा नई दिल्ली 6 मार्च, राज्य सभा में साधारण बजट पर चर्चा में भाग लेते हुए राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने निम्नलिखित कविता पढ़ी-
धन्यवाद हे धन मंत्री को करें चाय सुख से प्रस्थान,
हम सब पानी ही पी लेंगे, किंतु खान पहले फिर पान
मिटे मद्य कर लोभ आपका अधिक आय का वह अभिशाप ,
दे देकर मद मोह स्वयं ही फिर प्रबोध देते हैं आप।
कर लेते हैं आप , आपके गण लेते हैं धन युत मान,
थाने क्या निज न्यायालय ही जाकर देखें दया निधान।
खोलें एक विभाग आप तो यह धर्षण हो जाये ध्वस्त,
जांच करे अधिकारी वर्ग की गुप्त भाव से वह विश्वस्त।
पहले ही था कठिन डाक से ग्रंथों द्वारा ज्ञान प्रसार,
पंजीकरण शुल्क बढ़ाकर अब रोक न दें विद्या का द्वार।
किन्तु नहीं पोथी की विद्या पर कर गत धन सी अनुदार,
साधु, साधु, श्रुति पंरपरा का आप कर रहे हैं उद्धार।
सुनते थे उन्नत देशों में कुछ जन नंगे रहते हैं,
स्वस्थ तथा स्वाभाविक जीवन वे इसको ही कहते हैं।
नया वस्त्र कर देता है यदि आज वही संकेत हमें,
तो हम कृतज्ञता पूर्वक ही उसे किसी विधि सहते हैं।
मक्खन लीज छाछ छोड़िए देश भक्ति यह सह लेगी,
पारण बिना किन्तु जनता क्या व्रत करके ही रह लेगी।
यह यथार्थ है यत्न आपके हैं हम लोगों के ही अर्थ,
आह कराह न उठने दे, जो शल्य वैद्य है वही समर्थ।
लोगों की चिंता थी जाने जीवन पर भी कर न लगे,
मर कर भी कर जी कर भी कर, डर कर कोई कहां भगे।
एक जन्म कर ही ऐसा है, जिस पर कुछ कुछ प्यार पगे,
और नहीं तो जन संख्या ही संभले, संयम भाव जगे।
कवि की कविता का जवाब भी कविता में मिला है, इसे भी हिंदुस्तान ने अपनी रिपोर्ट में दर्ज किया है।
हिंदुस्तान 9 मार्च, 1956 पहले पेज पर सिंगल कालम खबर
वित्तमंत्री का नया तराना
हमारे विशेष संवाददाता द्वारा
नई दिल्ली-राज्य सभा में साधारण बजट पर हुई बहस का उत्तर देते हुए वित्त मंत्री श्री चिंतामन देशमुख ने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के कवितामय भाषण का कविता में ही जवाब दिया, जो इस प्रकार है-
भारत भू के कायाकल्प का
आज सजा है पावन याग
स्नेह भरे कर लगा कमर को
बांध पटसे ले कवि भाग
सकल निगम और शिशु नर नारी
स्व-स्व पदोचित करके त्याग
चलें जुड़ाकर कर में कर को
दृढ़ता पग में नयनों जाग
यही पारणा यही धारणा
यही साधना कवि मत भाग
नया तराणा गूंज उठावो
नया देश का गावो राग
कुल मिलाकर हिंदी का आर्थिक पत्रकारिता ने यथासंभव खुद को आम आदमी के मसलों से जोड़कर रखा है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण, बीमा के राष्ट्रीयकरण से जुड़े मसलों पर हिंदी अखबारों में जमकर बहस चली। दिनमान ने आर्थिक पत्रकारिता के नये आयाम पेश किये। खास तौर पर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मसलों पर दिनमान ने बेहतरीन कवरेज दी। राष्ट्रीय सहारा के विशिष्ट परिशिष्ट हस्तक्षेप ने आर्थिक मसलों पर विशिष्ट विश्लेषण पेश करके अपने समय में महत्वपूर्ण तरीके से हस्तक्षेप किया।
वर्तमान स्थितियों में आर्थिक पत्रकारिता नयी चुनौतियों का सामना कर रही है। मुचुअल फंड, कामोडिटी एक्सचेंज, शेयर बाजार की कवरेज को बेहतर कैसे किया जाये, इस पर शोध-विश्लेषण किये जाने की आवश्यकता है।
इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता, भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जी.एन.रे, और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति और वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र मौजूद थे।
किताब कैसे खरीदें इस बारे में आप पुराणिक जी से संपर्क करेंगे. कुछ दिनों में इस पुस्तक की एक समीक्षा भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया जायेगा.
जुलाई 23, 2007 at 11:55 पूर्वाह्न
दादा को हार्दिक बधाई
जुलाई 23, 2007 at 12:21 अपराह्न
आलोक भाई को बहुत बहुत बधाई.
भाई शब्द बोल्ड कर दिया है ताकि संबंधो के चलते अगर किताब फ्री न भी मिले तो भी डिस्काउन्ट तो लग ही जाये.
जुलाई 23, 2007 at 12:25 अपराह्न
बधाई आलोक जी को!!
आभार सूचना देने के लिए1
जुलाई 23, 2007 at 1:25 अपराह्न
बधाई, अर्थशास्त्री जी..
जुलाई 23, 2007 at 5:19 अपराह्न
पुराणिक जी को बहुत-बहुत बधाईयाँ। स्व. मैथिली शरण जी के बारे में इस अद्भुत जानकारी के लिये धन्यवाद भी।
जुलाई 23, 2007 at 7:21 अपराह्न
आलोक पुराणिक जी को बहुत बहुत हार्दिक बधाई.
हमारी बदकिस्मती की बहुत चाह कर भी न जा पाये.
जुलाई 23, 2007 at 7:50 अपराह्न
बहुत बहुत बधाई जी,आपको नही आलोक जी कॊ किताब के विमोचन की,अब आपको धन्यवाद ये छापने और तसवीरे दिखाने का.वैसे हम तो इस चक्कर मे थे कि “सुना है पहली १० किताबे हस्ताक्षर कर भेट मे दी जाती है”वाली लाईन मे लगते.पर चलो अब डिस्काउंट वाली से ही संतोष कर लेगे जी 🙂
जुलाई 23, 2007 at 10:41 अपराह्न
बहुत बहुत “आर्थिक” बधाई.
आलोकजी सोच समझ कर गम्भीरता से व्यंग्य लिखते है, यह पुस्तक तो मजाक मजाक में ही लिख दी है. अब ऐसा ही मजाक हमें फ्री प्रति भेज कर करने वाले है. 🙂
जुलाई 23, 2007 at 11:11 अपराह्न
बधाई !
जुलाई 23, 2007 at 11:38 अपराह्न
बहुत बहुत बधाई आलोक जी..
जुलाई 24, 2007 at 12:04 पूर्वाह्न
आलोक भाई को बहुत-बहुत बधाई!
जुलाई 24, 2007 at 1:04 पूर्वाह्न
आलोक जी को बहुत-बहुत बधाई !
जुलाई 24, 2007 at 1:30 पूर्वाह्न
आलोक जी की इस किताब का लंबे अरसे से इंतजार था।
लगभग एक दशक पहले “हिन्दी आर्थिक पत्रकारिता की दशा और दिशा” पर शोध करते समय मैंने आलोक जी के साथ इसी विषय पर एक बातचीत की थी। तब हम दोनों सहकर्मी भी हुआ करते थे। मुझे खुशी है कि अब उसी विषय पर खुद आलोक जी ने विस्तार से वर्षों मेहनत करके एक स्तरीय और पठनीय किताब तैयार की है। पत्रकारिता से जुड़े लोगों और खासकर विद्यार्थियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण संदर्भ पुस्तक का काम करेगा।
जुलाई 24, 2007 at 9:50 पूर्वाह्न
बहुत बधाई आलोक जी को इस उपलब्धि के लिए। आपको इस सूचना के लिए धन्यवाद!
जुलाई 25, 2007 at 9:09 पूर्वाह्न
बिमोचन-उम्मोचन तो सब ठीक है. आलोकजी से कहिए कि उनके ऊपर जबर्दस्त जुर्माना आयद हुआ है. शरीफ आदमी की तरह दे जाएँ वर्ना हमें लेना आता है.