[कुछ तकनीकी कारणों से काकेश डॉट कॉम आज बन्द है. इसलिये इस पोस्ट को फिर से यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. असुविधा के लिये क्षमा प्रार्थी हूँ.]
कवि त्रिलोचन बीमार हैं. उनके बारे में ब्लॉग जगत में लिखा भी जा रहा हैं. कुछ दिनों पहले मैने एक पोस्ट लिखी थी जिसमें त्रिलोचन की कुछ कविताऎं प्रस्तुत की थी. कल अतुल ने उसी पोस्ट पर टिप्पणी कर त्रिलोचन के बारे में फणीश्वर नाथ रेणु के संस्मरण के बारे में बताया.उसे पढ़ा और फिर त्रिलोचन की कविताऎं जैसे नजर के सामने घूम गयीं.
जब से पहलू में त्रिलोचन की कविताओं के बारे में पढ़ा था तब से ही ‘नगई महरा ‘ और ‘चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती’ कविताऎं दिमाग में थी.फिर चन्द्रभूषण जी ने इन कविताओं का अनुरोध भी कर दिया था.
अब अगर मौका मिले तो ‘चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती’ और ‘नगई महरा’ की मुंहदिखाई भी करा दो…
बोधी भाई का अनुरोध था
हो सके तो “बिस्तरा है न चारपाई है” भी छापें ।
तो कल शाम को जब मन त्रिलोचन-मय था तो ये तीनों कविताऎं ढूंढने का खयाल आया…और घर में ही तीनों कविताऎं मिल गयी.. तो लीजिये आज प्रस्तुत है ‘चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती’ बांकी दो कविताऎं भी जल्दी ही लाता हूँ.
चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं.चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है : गाय भैसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती हैचम्पा अच्छी है
चंचल है
न ट ख ट भी है
कभी कभी ऊधम करेती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ – अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँचम्पा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चम्पा चुप हो जाती हैउस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है –
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढ़ुंगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ुंगीमैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो , देखा ,
हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता में कभी न जाने दुंगी
कलकती पर बजर गिरे।— त्रिलोचन ( उनकी पुस्तक धरती से जो 1945 में प्रकाशित हुई थी)
अक्टूबर 15, 2007 at 12:44 पूर्वाह्न
aaj tak to inse anjaan hi tha par ab padh kar bahut accha laga. lage hath sambandhit purani post bhi padh dali. bahut hi accha laga.
aapko bahut-bahut dhanyabad.
अक्टूबर 15, 2007 at 1:25 पूर्वाह्न
सुन्दर।
शुक्रिया।
अक्टूबर 15, 2007 at 1:33 पूर्वाह्न
वाह …वाह…
आपने कहा तो दो दिनों से नज़र रखे था।
बहुत बढ़िया … चारपाई कहां है ?
अक्टूबर 15, 2007 at 5:34 पूर्वाह्न
कविताएं मैं भी डालूंगा आपके इस पोस्ट से प्रेरणा मिली
धन्यवाद
अतुल
अक्टूबर 15, 2007 at 10:09 पूर्वाह्न
महान कवि की बड़ी रचना फिर से पढवाने के लिए बधाई….
अक्टूबर 26, 2007 at 3:09 अपराह्न
सुंदर कविता पढवाई धन्यवाद । हिंदी, मराठी, अंग्रेजी छोड दे तो अपन भी चंपा ही हैं ।