अक्टूबर 2007
Monthly Archive
अक्टूबर 15, 2007
Posted by kakesh under
कविता
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[कुछ तकनीकी कारणों से काकेश डॉट कॉम आज बन्द है. इसलिये इस पोस्ट को फिर से यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. असुविधा के लिये क्षमा प्रार्थी हूँ.]
कवि त्रिलोचन बीमार हैं. उनके बारे में ब्लॉग जगत में लिखा भी जा रहा हैं. कुछ दिनों पहले मैने एक पोस्ट लिखी थी जिसमें त्रिलोचन की कुछ कविताऎं प्रस्तुत की थी. कल अतुल ने उसी पोस्ट पर टिप्पणी कर त्रिलोचन के बारे में फणीश्वर नाथ रेणु के संस्मरण के बारे में बताया.उसे पढ़ा और फिर त्रिलोचन की कविताऎं जैसे नजर के सामने घूम गयीं.
जब से पहलू में त्रिलोचन की कविताओं के बारे में पढ़ा था तब से ही ‘नगई महरा ‘ और ‘चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती’ कविताऎं दिमाग में थी.फिर चन्द्रभूषण जी ने इन कविताओं का अनुरोध भी कर दिया था.
अब अगर मौका मिले तो ‘चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती’ और ‘नगई महरा’ की मुंहदिखाई भी करा दो…
बोधी भाई का अनुरोध था
हो सके तो “बिस्तरा है न चारपाई है” भी छापें ।
तो कल शाम को जब मन त्रिलोचन-मय था तो ये तीनों कविताऎं ढूंढने का खयाल आया…और घर में ही तीनों कविताऎं मिल गयी.. तो लीजिये आज प्रस्तुत है ‘चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती’ बांकी दो कविताऎं भी जल्दी ही लाता हूँ.
चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं.
चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है : गाय भैसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है
चम्पा अच्छी है
चंचल है
न ट ख ट भी है
कभी कभी ऊधम करेती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ – अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ
चम्पा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चम्पा चुप हो जाती है
उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है –
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढ़ुंगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ुंगी
मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!
चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो , देखा ,
हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता में कभी न जाने दुंगी
कलकती पर बजर गिरे।
— त्रिलोचन ( उनकी पुस्तक धरती से जो 1945 में प्रकाशित हुई थी)
अक्टूबर 9, 2007
Posted by kakesh under
मेरी बात,
यूं ही
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आप कितना भी कमाने लगो आपकी इच्छाओं या कहें जरुरतों और जेब का अंतर बराबर ही रहता है.एक तरफ लगता है कि चीजें अब पहुंच में आ जायेंगी लेकिन नहीं आती दूसरी तरफ लगता कि हम किन चीजों के पीछे भाग रहे हैं और क्यों भाग रहे हैं? ऎसे विचार इसलिये मन मे आलोड़न विलोड़न करने लगते हैं जब देखता हूँ कि दुनिया में कितनी असमानता है. क्या ये असमानता हमेशा से थी ? क्या ये असमानता हमेशा रहेगी ? तो क्या पूंजीवाद सही में खराब है ? तो क्या साम्यवाद सही है?
चलिये दो घटनाओं से आपका परिचय करवाता हूँ.कल एक व्यक्ति से, जिनसे कभी कभी बात होती रहती है लेकिन जिनको मित्र की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता,बात हो रही थी.उन्होने बताया कि अभी हाल ही में उन्होने नया फ्लैट बुक करवाया है. वो अभी खुद के फ्लैट में ही रहते है और एक नया फ्लैट इनवैस्टमेंट के तौर पर लिया है. कीमत एक करोड़ से ऊपर की है. कितनी ये उन्होने नहीं बताया. वह सज्जन कहीं नौकरी भी नहीं करते. केवल बी.कॉम पास हैं.क्या करते हैं ये तो मेरे को नहीं मालूम लेकिन जब ऑफिस के लिये निकलता हूँ सुबह तो सोसायटी के लॉन में बैठे नजर आते हैं और शाम को लौटता हूँ तो अक्सर वहीं घूमते,गपियाते मिल जाते हैं. क्या करते हैं नहीं मालूम. कोई कहता है कि शेयर का काम करते हैं,कोई कहता है कि प्रॉपर्टी का काम करते हैं. तो फिर वो पैसा कहाँ से कमाते हैं? उनके पास दो दो गाड़ियाँ भी हैं…और उनका घर देखो (हाँलाकि मैं कभी गया नहीं पर पत्नी ने बताया) लगता है फाइव स्टार होटल है. तीन कमरों में प्लाज्मा टीवी, हॉल में होम थियेटर, तरह तरह की पेंटिंग्स. एक पेंटिंग की कीमत लाख से ऊपर है, ऎसा उनकी पत्नी ने मेरी पत्नी को बताया… और फिर एक करोड़ से ऊपर का फ्लैट भी बुक करा दिया.
आज सुबह अपनी मधुशाला वाली पोस्ट पूरी की तो थोड़ी निराशा सी थी मन में. उमर खैयाम की रुबाइयों में एक तरह का दर्द है जो जीवन को नश्वर बता कर अंदर तक झकखोर देता है. निराशा और बढ़ी जब इतनी मेहनत से लिखी पोस्ट पर कॉमेंट नहीं आये. सोचने लगा कि इतनी मेहनत ‘उमर’ पर करूँ या किसी और विषय़ पर. खैर वो अलग बात है लेकिन आज एक समाचार पढ़ने में आया. बिहार में ‘गया’ नामक स्थान इसलिये प्रसिद्ध है क्योकि यहां पितृ आत्माओं के लिये श्राद्ध किये जाते हैं. अभी चल रहे पितृ दिवस में यहाँ पांव रखने की भी जगह नहीं रहती. लोग आत्माओं की शाति के लिये पिंड दान करते हैं.इन पिंडों को पानी में बहाने या गाय को खिलाने का चलन है. लेकिन गया में बहुत से लोग ऎसे है जो इन पिंडो को उठा लेते हैं और इनको सुखाकर,पीसकर खाते हैं और अपनी उदर तृप्ति करते हैं.समाचार के अनुसार इन पिंडों से इन लोगों के 2-3 महीने का खाना चल जाता है.
कैसी विडम्बना है ..एक ओर तो हम मृत आत्माओं की उदरपूर्ति के लिये श्राद्ध कर रहे हैं और यहां जीवित आत्माऎं भोजन की तलाश में भटक रही हैं.
समाचार : दैनिक जागरण
पितृपक्ष मेले में पिंडदान के लिए आए लोगों की तलाश में लगी कई महिलाओं और बच्चों को देखा जा सकता है। ये वह लोग हैं जो अपने पेट की आग बुझाने के लिए दान किए गए पिंड ढूंढते फिरते हैं। पिंडों को लेकर अक्सर इनमें झगड़ा भी होता रहता है। गया में इन दिनों यह दृश्य आम है। प्रमुख पिंडवेदी स्थल विष्णुपद, अक्षयवट एवं सीताकुंड आदि जगहों पर कई महिलाएं और बच्चियां अर्पित पिंड बीनती रहती हैं पिंड जौ के आटे, चावल और तिल के मिश्रण से बनता है। इसे वैदिक मंत्रोच्चारण के बाद पूर्वजों की आत्माओं को समर्पित किया जाता है। विधान यह भी है कि पिंड को जल में प्रवाहित कर दिया जाए या गाय को खिला दिया जाए। हालांकि आम तौर पर ऐसा नहीं होता। यही वजह है कि धार्मिक विधानों को तोड़ गरीब, वेदी के आसपास पिंड बटोरने को जुटे रहते हैं। पिंड बटोरने वाले बताते हैं-वह इसे धूप में सुखाने के बाद कूट और चाल कर रोटी बनाते हैं। इससे उनका दो-तीन महीने तक काम चल जाता है। इस तरह कई परिवार पलते हैं। इन लोगों को पितृपक्ष का बेसब्री से इंतजार रहता है। गरीबी उन्मूलन की योजनाओं के बारे में ये लोग बहुत कुछ नहीं जानते, लेकिन इतना जरूर कहते हैं कि अगर उन्हें गेहूं-चावल मिलता तो पिंड चुनने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
अक्टूबर 7, 2007
Posted by kakesh under
मेरी बात,
यूं ही
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दरअसल ब्लॉग की शुरुआत एक दैनिन्दिनी या डायरी के रूप में ही हुई थी. लोगो ने इसे अपनी डायरी का ही एक हिस्सा माना. ऎसी डायरी जो सार्वजनिक थी.इसी कारण अधिकतर लोगों ने छ्द्म नामों से लिखना प्रारम्भ किया.लेकिन आज ब्लॉग का स्वरूप बदल रहा है. लोग इसे वैकल्पिक पत्रकारिता या साहित्य लेखन से जोड़ने लगे है.इस चिट्ठे पर अब कुछ व्यक्तिगत से मुद्दों पर लिखने का विचार है.कम से कम सप्ताह में एक बार. हाँलाकि अब मैं नये चिट्ठे पर लिखने लगा हूँ. लेकिन वहाँ पर कोशिश है कि कुछ साहित्यिक टाइप (?) का लेखन करूँ.
किताबों से मुझे सदा से ही बहुत प्यार रहा है.बचपन से ही किताबें पढने का शौक रहा है. तब पढ़ने का समय होता था पर तब पैसे नहीं होते थे कि किताब खरीद सकें. अब पैसे हैं तो किताब पढ़ने का समय सिमटता जा रहा है. उन दिनों पुस्तकालय में जाके किताबें पढ़ता था. पर इस तरह पढ़ने से एक ही नुकसान होता है कि जब आप समय के साथ पढ़े हुए को भूलने लगते हैं और आपको फिर से उसी किताब को पढ़ने की इच्छा होती है तो आप कुछ नहीं कर पाते.कभी किसी किताब में पढ़े हुए को सन्दर्भ के रूप में प्रयोग करना हो भी आप मुश्किल में पढ़ जाते हैं. पिछ्ले दिनों प्रगति मैदान में एक छोटा सा पुस्तक मेला लगा था. मैं भी गया और कई किताबें खरीद डाली. उनकी चर्चा अपने मुख्य ब्लॉग पर कभी करुंगा.
हिन्दी ब्लॉग लेखन से कम से कम मुझे एक लाभ हुआ है कि हिन्दी किताबों में रुचि फिर से बढ़ने लगी है. जब से प्राइवेट सैक्टर में नौकरी प्रारम्भ की तब से अधिकतर काम अंग्रेजी में ही होता है इसलिये अंग्रेजी ज्यादा रास आने लगी थी…और फिर अंग्रेजी किताबें पढ़ने का सिलसिला भी चालू हुआ. हिन्दी किताबें छूटती ही जा रहीं थी.हाँलाकि रस्म अदायगी के तौर पर हिन्दी किताबें कम से कम साल में एक बार खरीदता रहा लेकिन सब किताबें पढ़ी जायें ये संभव नहीं हो पाया. अब ब्लॉग लेखन के बाद हिन्दी की किताबों में दिलचस्पी फिर से बढ़ी है.इसीलिये कुछ नयी किताबें खरीद रहा हूँ कुछ पुरानी पढ़ रहा हूँ. राजकमल की ‘पुस्तक मित्र योजना’ का भी सदस्य बन गया हूँ.
कुछ पत्रिकाऎं भी नियमित रूप से मँगा रहा हूँ. ‘कथादेश’ अविनाश जी के लेख के लिये नियमित पढ़्ता हूँ. ‘आलोचना’ और ‘वाक’ भी मंगा रखी हैं. ‘लफ्ज’ का भी ग्राहक बन रहा हूँ. कल भी श्री राम सैंटर से कुछ किताबें खरीद लाया. कितनी पढ़ी जायेंगी मालूम नहीं..
ये सब क्यों कर रहा हूँ या क्यो हो रहा है पता नहीं…पर जो भी है…मैं मानता हूँ कि अच्छा ही है…
थैक्यू ब्लॉगिंग.
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अभी हाल ही में जो लिखा दूसरे चिट्ठे पर. उमर खैयाम की रुबाइयों पर एक विशेष श्रंखला प्रारम्भ की है.
1. खैयाम की मधुशाला..
2. उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद..
3. मधुशाला में विराम..टिप्पणी चर्चा के लिये
4. उमर की रुबाइयों के अनुवाद भारतीय भाषाओं में
कुछ व्यंग्य जो पिछ्ले दिनों लिखे.
1. एक व्यंग्य पुस्तक का विमोचन
2. एक ग्रेट फादर का बर्थडे…[ यह बहुत पसंद किया गया.न पढ़ा हो तो कृपया पढ़ लें]
3. सपना मेरा मनी मनी !!
4. एस.एम.एस.प्यार ( SMS Love) [ यह भी हिट रहा]
5. चकाचक प्रगति का फंडा
6. शांति की बेरोजगारी
बहस / मेरे विचार
1.नो सॉरी ..नो थैंक्यू !!
2. क्या चिट्ठाकार बढ़ने से फायदा हुआ है?
सूचना टाइप
1. ऑटो/टैक्सी के लिये मोलभाव गलत है ? !
2. प्रिंट में छ्पते चिट्ठाकार