कल जब मित्र समीरलाल जी ने “मोटों की महिमा” छापी तो अपने मोटापे पर आती जाती शरम फिर गायब हो गयी और एक पुरानी पढी कविता याद आ गयी.. लीजिये कविता प्रस्तुत है…
आराम करो
आराम करो
एक मित्र मिले, बोले, “लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।”
हम बोले, “रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में ‘राम’ छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ — है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ — सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब ‘सुख की नींद’ कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
– गोपालप्रसाद व्यास
जुलाई 10, 2007 at 12:55 पूर्वाह्न
आनन्ददायक
“अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।”
आजकल तो अदवायन खिंची खाट होती ही कहां है!
जुलाई 10, 2007 at 1:19 पूर्वाह्न
दुनिया में लाख ग़म हैं, किस किस को रोइये,
आराम बड़ी चीज़ है मुँह ढ़क के सोइये.
जुलाई 10, 2007 at 3:10 पूर्वाह्न
गोपालप्रसाद व्यास जी कि कविता को बहुत दिनों से ढुंढ रहा था पढ कर मन खुश हो गया, आपका धन्यवाद
जुलाई 10, 2007 at 6:12 पूर्वाह्न
kaahe जी क्या चारपाईया तुडवाने का विचार है भाइ अब इतनी सेहत वाले आदमी कॊ तो भाइ लिंटर वाली जगह पर ही बैठाया जा सकता है
जुलाई 10, 2007 at 8:11 पूर्वाह्न
हा हा, बहुत दिनों बाद पढ़ी यह कविता आज फिर से. मजा आ गया. 🙂
जुलाई 10, 2007 at 9:59 पूर्वाह्न
हमारा प्रोफ़ाइल देखो जाकर .सोना हमारा शौक है उसे हवा दे रहे हो ।बहुत बुरा कर रहे हो ।हम प्रमादियो के साथ ।
जुलाई 10, 2007 at 1:23 अपराह्न
बहुत खूब!
जुलाई 10, 2007 at 1:25 अपराह्न
जी खाट तो अब है नहीं फोल्डिंग चारपाई है उसी पर ट्राई करते हैं।
बाकी सब एकदम सत्य कहा है। 🙂
जुलाई 10, 2007 at 1:56 अपराह्न
गोपाल जी की रचना पढने को मिली।धन्यवाद। लेकिन फोटो तो (अपनी) पूरी देते।:)
जुलाई 16, 2007 at 6:17 अपराह्न
कहाँ सुबह-२ ऐसी कविता को छेड दिया , बडी मुशिकिल से उठा हूँ प्रात: कालीन भ्रमण के लिये , अब जब यह कविता पढ ली तो भाड मे जाये मेरा यह मोटापा , मै तो चला चारपाई तोडने , आमीन ! 🙂
सितम्बर 18, 2007 at 6:58 अपराह्न
यार काकेश भाई
यह कविता हमारी नजर से कैसे चूक गई, समझ ही नहीं आया. आज एकाएक दिखी. आनन्द आ गया. हा हा॒!!! मेरी तोंद की तस्वीर आपको कहाँ से मिली. ??? 🙂