जून 2007
Monthly Archive
जून 14, 2007
Posted by kakesh under
कविता
[12] Comments
मन जब उद्विग्न हो तो ना जाने क्या क्या सोचने लगता है.रोटी और पैसे के सवालों से जूझना जीवन की सतत आकांक्षा है पर उसके अलावा भी तो हम हैं..क्या सिर्फ रोटी पैसा और मकान ही चाहिये जीने के लिये…यदि वो सब मिल गया तो फिर क्या करें??? …कैसे जियें? क्या इतना काफी है जीने के लिये ? संवेदना किस हद तक सूनी हो सकती है.?.और फिर उस संवेदना को पकड़ना भी कौन चाहता है..? कितनी महत्वपूर्ण है वो संवेदना..? क्या हम संवेदनशील हैं…? क्या उगता सूरज देखा है आपने..और फिर डूबता भी देखा ही होगा .. क्या कोई अन्तर पाया..?? दोनों लाल ही होते हैं ना… आकाश वैसा ही दिखता है गुलाबी… चलिये फिर ध्यान से देखें उन रंगो को ..
मै कविता नहीं जानता ..कुछ लिखा है..आप भी पढ़ लें…
(1)
बदलते समय और भटकते मूल्यों के बीच ,
धँस गया हूँ ,
दूसरों की क्या कहूँ,
खुद को ही लगता है कि,
फँस गया हूँ.
(2)
समय के अनवरत बढ़ते चक्र
को थामने की कोशिश बेमानी है,
पर जीवन के इस रास्ते पर
अब चलने में हैरानी है..
(3)
दीवार अब खिड़की से
उजाले के बाबत
सवाल पूछ्ती है
आग अब जलने के लिये
मशाल ढूंढती है.
(4)
टेड़ा-मेड़ा,भारी-भरकम
कैसा भी हो ,
पर है उत्तम
जीवन पथ है.
(5)
बनकर मीठा,
अब तक सहकर,
जीवन रीता,
सारा बीता.
(6)
नहीं कमी है,
फिर क्यों खाली ?
तेरी मेरी उसकी थाली !!
(7)
बदल जरा तू ,
संभल जरा तू ,
मिल जायें तो ,
बहल जरा तू.
पा जायेगा…
राह नवेली..
ये झूठी है…
आह अकेली.
(8)
चाहे चुककर,
चाहे झुककर,
बस चलता जा,
बस जलता जा,
कभी मिलेंगी,
प्यारी-प्यारी ,
ये खुशियाँ
कब तलक करेंगी
अपने मन की… !!
आंख मिचौनी …
जून 13, 2007
Posted by kakesh under
मेरी बात
[9] Comments
अभय जी ने कहा कि
“ काकेश जी.. आपके व्यंग्य बाण की राह हम देख रहे हैं”
.. जी नहीं आज व्यंग्य की विधा में बात नहीं करुंगा .. थोड़ी गंभीर बात करनी है …और दिन में कभी कभी तो मैं गंभीर बात करता ही हूँ…
अभय जी ने आज अपनी पोस्ट में कहा कि मैने (काकेश ने) भी अपनी पोस्ट में कुछ लोगों के बारे में लिखा था इसलिये नारद द्वारा कारवाई तो मुझ पर भी होनी चाहिये थी…. अब नारद किस तरह से कारवाई का निर्णय लेता है उससे मेरा कोई सरोकार नहीं है और मैं इस बात पर अपने विचार भी नहीं रख रहा हूँ कि अभी नारद द्वारा जो निर्णय लिया गया वो सही है या गलत. …मैं तो सिर्फ अपनी बात रख रहा हूँ…
मुझे खुशी है कि अभय जी ने मुझे गंभीर और शालीन इंसान बताया .. (हूँ नहीं 🙂 ) .. धन्यवाद!! .. लेकिन जहां तक मेरी पोस्ट को लेकर उन्होने कहा कि नारद को मेरे ऊपर कारवाई करनी चाहिये थी (यदि किसी और पर की है तो ..क्योकिं मेरा अपराध भी कमोबेश वही था जो इन महाशय का है) तो उससे मैं सहमत नहीं हूँ… व्यक्तिगत लांछ्न और व्यंग्य में फरक होता है … जब हम किसी पर व्यंग्य करते हैं तो उसके कुछ विचार कुछ आदतों कुछ क्रिया कलापों या कुछ विशेष पक्षों पर एक मजाकिया नजर डालते हैं .. ये कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं है ना ही इसमें कोई वैमनस्य की भावना होती है.. हाँ वैचारिक मतभेद होता है … होना भी चाहिये..यदि ब्लौगजगत में वो भी ना करें तो क्या करें ..? जिस तरह आपने कहा “ क्या आपके जनतांत्रिक समाज मे मनुष्य के पास यह हक़ नहीं होगा..? और फिर ऐसी भाषा..? ” ..जी हाँ हमें भी पूरा हक है आप पर कटाक्ष करने का … (आपको भी है पर आप करते ही नहीं …हम तो तैयार बैठे रहते हैं 🙂 ) और यहां पर बात सिर्फ भाषा की ही नहीं है ..भाषा में निहित अर्थों की भी है… भाषा तो महत्वपूर्ण है ही … कहा भी गया है “ सत्यं ब्रूयात , प्रियम ब्रूयात “ .. आप सत्य को किस भाषा में कह रहे हैं वो भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की सत्य….
हमारी हिन्दी की आम बोलचाल में बहुत से लोग गालियों का निर्बाध प्रयोग करते हैं .. हम लोग हॉस्ट्ल में थे तो कहते थे कि आप गाली उसी को देते हैं जो या तो आपका कट्टर दुश्मन होता है या फिर आपका जिगरी दोस्त. वही गाली दो अलग अलग व्यक्तियों को दो अलग अलग अर्थ दे जाती है .. आपने शायद पुराणिक जी का व्यंग्य पढ़ा होगा .. जहाँ आप हरामी शब्द की नयी व्याख्या पाते हैं
“अगर हरामी शब्द के टेकनीकल मतलब को छोड़ दिया जाये, तो अब यह शब्द प्यार और सम्मान का सूचक है।“
और ये बात किन्ही अर्थों में सही भी है… आप चाहें इस पोस्ट पर लोग़ों ने क्या क्या टिप्पणी की हैं ..जो देखा जाये तो कुछ नहीं सिर्फ गालियाँ है पर एकदम दूसरे अर्थों में…..
अभय जी ने मेरी दो पोस्टों का हवाला दिया… मुझे खुशी है इसी बहाने कुछ लोगों ने वो पोस्ट पढ़ लीं 🙂 पर जरा आप भी इन पोस्टों को ध्यान से देखें … इन पोस्टों में किसी भी ब्लौग का किसी भी तरह का लिंक या किसी व्यक्ति विशेष पर कोई सीधे आक्षेप है ??…नहीं है … किसी व्यक्ति का नाम भी सीधे तौर पर नहीं आया है… सब कुछ प्रतीकों के जरिये दिखाने,समझाने की कोशिश की गयी है .. हाँलाकि जो चिट्ठाजगत की गतिविधियों से अवगत हैं उन्हें ये प्रतीक समझ आ भी जायेंगे और यही मकसद भी था/है ..लेकिन यदि हम किसी को नाम लेकर या लिंक देकर कोई पोस्ट लिखते हैं ..तब आप उस पर सीधे आक्षेप लगाते हैं लेकिन जब हम प्रतीकों के जरिये अपनी बात रख रहे हैं तो इसमें व्यक्ति गौण हो जाता है और उसके कुछ क्रिया कलाप प्रमुख .. और फिर यदि चिट्ठाजगत के बाहर का व्यक्ति उसे पढॆ (आज या आज से दस साल बाद भी) तो उसे वो पोस्ट सिर्फ उन्ही अर्थों में परिपूर्ण लगेगी जिन अर्थों में वो दिखती है .. यानि उस पोस्ट का महत्व चिट्ठाकारी के इतर भी है … इन पोस्टों की चिंता स्थानीय होते हुए भी सार्वजनिक हैं…. आइये एक उदाहरण के साथ बताता हूँ …
अभय जी ने लिखा
“उन्होने मेरे और अविनाश के बीच चले एक विवाद को दो कुत्तो की लड़ाई के समकक्ष रखा.. ऐसी एक तस्वीर डाल के.. अविनाश की तुलना वे एक पागल कटखन्ने कुत्ते से पहले ही कर चुके थे..”
यहीं अभय जी से मेरा मतांतर है.. यदि मैं कहूँ कि “क्यों कुत्तों की तरह लड़ रहे हो ? “ तो ये टिप्पणी लड़ने वाले व्यक्तियों पर नहीं वरन उनके द्वारा किये जा रहे “लड़ने” की क्रिया पर है.. यदि इसी वाक्य को इस तरह से कहें कि “ क्यों कुत्ते… क्यों लड़ रहे हो ? “ तो ये लांछन है … जहां दो लड़ने वाले व्यक्तियों की तुलना कुत्तों से की गयी है … इसी तरह से जब वह कहते हैं “अविनाश की तुलना वे एक पागल कटखन्ने कुत्ते से पहले ही कर चुके थे “ तो ये भी गलत है ..क्योकि मैने अविनाश जी की तुलना कभी भी नहीं की..पर हाँ मेरा विरोध या मतभेद उनके मोहल्ले ब्लौग पर किये जा रहे कुछ दुष्प्रचार पर था ..और उस क्रिया को मैने अपने व्यंग्य में निशाना बनाया .. ये व्यक्तिगत रूप से अविनाश जी पर की गयी टिप्पणी नहीं थी… ( वैसे आज मैने अविनाश जी को ई-पत्र लिखकर अपनी इस टिप्प्णी पर खेद भी प्रकट किया है… यदि वो इससे आहत हुए हों तो… …लेकिन जिन बातों पर मेरा वैचारिक मतभेद था …वो तब भी था और आज भी है … भविष्य का पता नहीं .. ) .. ठीक इन्ही अर्थों में अन्य प्रतीक जैसे कौवे,गधे,सुअर भी प्रयोग किये गये हैं… तो मेरा अनुरोध कि इन तुलनाओं को व्यक्तिगत तुलना ना माना जाये…
अभय जी मेरे पसंदीदा चिट्ठाकारों में हैं ..जब मैं यह कहता हूँ तब मेरा मतलब सिर्फ और सिर्फ उनके लेखन से होता है . मैं उनके बारे में व्यक्तिगत रूप से ज्यादा नहीं जानता तो व्यक्तिगत रूप से उन पर टिप्पणी करना मेरे लिये ठीक भी नहीं है…. इसलिये मैं सिर्फ उनको पढ़ता हूँ और मन हुआ तो अपनी प्रतिक्रिया टिप्पणी के माध्यम से देता भी हूँ.. ..तो एक पाठक के नाते ही जब मेरा ये अधिकार बनता है कि मैं उनके लिखे पर टिप्पणी करूं तो ये भी बनता है कि मैं उनके विचारों से सहमत ना होकर उन पर व्यंग्य लिखूं …
तो ये थी मेरी बात …
वैसे शायद आपके मालूम हो उन्होने अपने ब्लौग से गुलाबी गमछे वाली फोटो हटा दी है और दाड़ी वाली फोटो लगा दी है .क्योकि मैने अपने दोनों ही पोस्टों में उनकी गुलाबी गमछे वाली फोटो का ही प्रयोग किया था ..इसीलिये वो थोड़ा घबरा गये और दाड़ी बढ़ाने लगे 🙂 .तो अगला व्यंग्य उनकी दाढ़ी वाली फोटो के माध्यम से होगा .. यदि वो आहत ना होने का वादा करें तो…. 🙂
जून 12, 2007
Posted by kakesh under
बहस
[12] Comments

अपनी पिछ्ली पोस्ट में मैं कुछ उधेड़बुन में था कि ब्लौग क्या बिना उद्देश्य के भी लिखा जा सकता है … आप लोगों की टिप्पणीयों से साहस बंधा कि मुझे इस प्रश्न पर सर खपाने की बजाय लिखते रहना चाहिये …. इसलिये अब अपने सारे पूर्वाग्रह और दुराग्रह छोड़ के फिर से उपस्थित हुआ हूँ .
अभी कुछ दिनों से टीवी पर ऎसे विज्ञापनो की संख्या बढ़ गयी है जिसे आप अपने पूरे परिवार के बीच नहीं देख सकते…या देखकर शर्म महसूस कर सकते हैं… पहले ऎसे विज्ञापन केवल कॉंडोम या अन्य गर्भनिरोधकों के ही होते थे. मुझे याद है ..बचपन में जब केवल दूरदर्शन ही एकमात्र चैनल हुआ करता था तब रात के हिन्दी समाचारों के बाद गर्भनिरोधकों जैसे “निरोध” या “माला-डी” का विज्ञापन आता था और जब भी हिन्दी समाचार समाप्त होने को होते और मुख्य समाचारों की बारी आती तो हमारे घर में टी वी की आवाज कम कर दी जाती. हाँलाकि उस समय इन विज्ञापनों में अश्लील कुछ भी नहीं होता था फिर भी इन्हें परिवार के बीच देखना गवारा नहीं समझा जाता था. और आजकल तो विज्ञापन ही ऎसे आ गये हैं जो द्र्श्य और श्रव्य दोनों ही रूपों में अश्लीलता की श्रेणी में आते हैं… और ये विज्ञापन खुले आम हमारे घरों में प्रवेश भी कर गये हैं… अभय जी अपनी पोस्ट में यौन कुंठा की बात कही उनका इशारा आजकल बन रही फिल्मों के बारे में था.. फिल्म देखने के लिये तो तब भी आपके पास एक विकल्प (ऑप्सन )होता है कि आप फिल्म देखें या नहीं लेकिन विज्ञापन तो कोई विकल्प भी नहीं देते… ये तो बस आपके टी.वी. पर आ जाते हैं जब तक आप इसकी शीलता या अश्लीलता समझे तब तक ये समाप्त हो चुके होते हैं और आप सोफे में बैठ नजरें कहीं और ग़ड़ाये चुप रहते हैं ये साबित करने के लिये कि आपका ध्यान तो कहीं और था.

अब “अमूल माचो” नामक अंडरवियर के विज्ञापन को ही लें.. ये किस तरह की फंतासी का निर्माण आपके अन्दर करता है .. जब नयी नवेली दुल्हन तालाब के किनारे अपनी पति के अंतर्वस्त्र को धो रही होती है तब वो और वहां पर जलती भुनती अन्य औरतें क्या सोच रही होती हैं… और वो नयी नवेली दुलहन सारी लोकलाज त्याग कर घुटनों तक अपनी साड़ी उठा कर, अजीब अजीब से मुँह बनाकर अंतर्वस्त्र धोने लगती है .. आप भी देखना चाहते हैं तो देखिये क्या है यह ?.. एक फंतासी के जरिये उत्पाद बेचने की कोशिश .. और ये ही बिक भी रहा है.. समाचारों के मुताबिक इस ब्रांड की बिक्री में इस विज्ञापन के बाद 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.. अंडरवियर के ऎसे बहुत से विज्ञापन आजकल दिखाये जा रहें हैं.. कुछ लोगों के मुताबिक ये सृजनात्मकता (क्रियेटिविटी) है .. लेकिन यदि क्रियेटिविटी क्या केवल अश्लील ही होती है…
इसी तरह के एक अन्य विज्ञापन में एक अर्धनग्न बाला बड़े ही सिड्यूसिंग तरीके से कहती है … “निकालिये ना ……. कपड़े “. ये क्यों?? इस तरह द्विअर्थी वाक्य तो पहले दादा कोंडके की फिल्मों में होते थे .. आपको “ अन्धेरी रात में दिया तेरे हाथ में” या “खोल दे मेरी…… जबान “ तो याद ही होंगे ना..तब लोग इन फिल्मों को कोसते थे और ये फिल्में “ए” सार्टिफिकेट के साथ हॉल में आती थीं .. लेकिन आजकल के विज्ञापन बिना किसी सेंसर के हमारे ड्राइंग रूम में आ रहे हैं… इसी तरह का एक द्विअर्थी विज्ञापन था रीडिफमेल का ..जिसमें लड़कियां एक छोटे राजू के बड़े साइज के बारे में बात कर रही होती हैं.. यहाँ तक की राजू का बॉस भी शौचालय में अपनी दृष्टि राजू के शरीर पर ही गड़ाये रखता है … और अंत में एक बेशरम मित्र पूछ ही लेता है क्या ये सचमुच बहुत बड़ा है .. तो राजू कहता है कि ये बड़ा ही नहीं वरन अनलिमिटेड है .. तब पता चलता है कि वो लोग राजू के मेल बॉक्स के साईज के बारे में बात कर रहे होते हैं…
अब कॉडोम के “बिन्दास बोल” या फिर दिल्ली सरकार के “कॉडोम हमेशा साथ रखिये” से तो बच्चे बहुत कुछ सीख ही रहे थे… अब आने वाले समय में और भी ना जाने क्या क्या सीखेंगे …
जून 9, 2007
Posted by kakesh under
बहस,
यूं ही
[17] Comments

आज कई दिन बाद फिर से अवतरित हुआ हूँ इस ब्लौग में… इस बीच ना जाने कितने नये ब्लौग आ चुके होंगे और नयी पोस्ट तो और भी ज्यादा होंगी ..लेकिन मैं कुछ भी पोस्ट करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था ..एक तो समय की कमी और दूसरी मन में ब्लौग को लेकर चलती उधेड़बुन.. पिछ्ली पोस्ट लिखी तो ज्ञानदत्त जी ने उसे ऑर्गेनिक कैमस्ट्री का नाम दिया था ..तब बात समझ नहीं आयी लेकिन उन्होने अपनी पोस्ट में उसे स्पष्ट करने का प्रयास भी किया . उन्होने कहा कि “काकेश; लगता हैं बड़े मंजे ब्लॉगर हैं। ” [इससे हमें आपत्ति है ..क्योकि पहले तो हम खुद को खिलाड़ी कहकर खिलाड़ियों का अपमान नहीं करना चाहते … हाँ भारतीय टीम के क्रिकेट खिलाड़ी कहते तब भी ठीक था और फिर मँजे हुए … मँजने के बाद ही धुलने का नम्बर आता है ..तो अब हमारी धुलाई होने वाली है उस बात से थोड़ा घबरा भी गये 🙂 ] …फिर जब उन्होने अपने जुनून की बात की तब टिप्पणीयों के द्वारा पता चला कि चिट्ठाकारी का कोई उद्देश्य भी होना चाहिये … हम तो यूँ ही चिट्ठाकारी करने में लगे थे कि मन हुआ तो कुछ लिख दिया नहीं तो पढ़ते रहो… टिपियाते रहो…लेकिन अब कोई कह रहा है कि कोई उद्देश्य भी होना चाहिये .. तो हम जैसे उद्देश्यहीन व्यक्ति क्या करें … ब्लौग लिखें या नहीं….??
फिर कुछ दिन पहले एक चिट्ठाकार से बात हुई तो यूँ ही जब उन्हे हमारी उम्र पता लगी तो कहने लगे ..अरे आप इतने बड़े हैं आपके लेखन से तो लगता था कि आप कोई 20-25 साल के ही होंगे… अब इसमें वैसे खुश होने की बात तो थी नहीं कि मेरे चेहरे से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता टाइप … क्योंकि उनसे तो सिर्फ वर्चुअल मुलाकात हुई थी … हम सोचे कि हम इतना घटिया लिखते हैं इसीलिए इन महाशय को लगा होगा कि कोई पढ़ा-लिखा समझदार परिपक्व आदमी तो ऎसा लिख ही नहीं सकता ..वैसे यहां ये भी बता दें कि हम पढ़े,लिखे,समझदार,परिपक्व हैं भी नहीं … इसलिये कोई विशेष अनुभूति नहीं हुई..उलटे अच्छा ही लगा …
फिर जब निर्मलानंद जी से मिले तो वो बोले अरे आप तो इतनी कम उम्र के हैं ..हम तो आपको ..खैर उन्होने जो भी कहा वो उसका बिल्कुल उलटा था जो पहले चिट्ठाकार ने कहा था… मेरी उधेड़बुन और बढ़ गयी .. आजकल प्रमोद भाई अपने को पहचानने की बात करने लगे हैं… और आज ज्ञानदत्त जी ने भी एक तरह की पहचान की बात छेड़ दी …मेरा तो कनफ्यूजन बढता ही जा रहा है … मैं अनेक सवालों से दो चार हो रहा हूँ ..क्या मेरा लेखन (ही) मेरी पहचान नहीं है ? क्या किसी के लेखन से उसकी उम्र और उसके व्यक्तित्व का पता चलता है ..या फिर चलना भी चाहिये क्या ?? क्या एक ही तरह का लेखन दो अलग अलग व्यक्तियों को दो अलग अलग अर्थ दे सकता है ? यदि हाँ तो क्या इसमें लेखक का दोष है या फिर पढने वाले का या कि किसी का नहीं… क्या व्यक्ति के विचार समझने के लिये व्यक्ति को जानना आवश्यक है .. ?? ज्ञानदत्त जी ने कहा ” लोग ब्लॉग पर अपने प्रोफाइल में आत्मकथ्य के रूप में हाइपरबोल में लपेट-लपेट कर न लिखें. अपने बारे में तथ्यात्मक विवरण दें. अपने को न तो महिमामण्डित करें और न डीरेट ” वो लोग जिंन्होने अपने प्रोफाइल में कुछ नहीं लिखा या बढ़ा चढ़ा कर लिखा है तो उससे उनका लेखन अच्छा या बुरा हो सकता है ..??
मैं इन्ही प्रश्नों से दो चार होता हूं ..आप कुछ सुझायें ताकि हम कुछ नया लेकर आपके सामने आयें…