मई 2007
Monthly Archive
मई 30, 2007
कल प्रमोद दद्दा पूछे कि “आप लिंक्ड है कि नहीं” हम सोचे ई का हो गया ….दद्दा सकाले सकाले का पूछ रहे हैं …वो भी सार्वजनिक रूप से . अब हम कैसे बतायें कि हम लिंक्ड है कि नहीं..वो भी सबके सामने…..घर में एक अदद बीबी भी है ना…. फिर जब पोस्ट में पढ़े तो उ तो एक नयी ही बात बताये कि लिंक करने से क्या क्या होता है… तो हम भी सार्वजनिक रूप से लोक लाज की फिकर किये बिना कह दिये … “अरे इ बड़े काम का बात बताये हैं… हम को तो इस लिकिंत कलंकित के बारे में पता ही नहीं था..वरना पहले ही तकादा करने आये होते ..कि हमरा लिंक काहे नहीं दिये ..चलिये तब ना सही अब कर देते हैं..लगा दीजिये ना जी एक ठो हमार भी लिंक …कर दीजिये ना हमको भी लिंकित ..हमको बहूत अच्छा लगेगा जी …वैसे मालुम है कि आप लिंकित तो ना ही करेंगे पर तकादा करने में क्या हरज …वैसे भी हम लेडी नहीं लेडा हूँ…” हम सोचे कि कहां हम भरभण्ड के चक्कर में पड़ रहा हूं ..लिंकित तो ना ही होंगे …लेकिन सांझ को देखा तो हम भी लिंकित थे… तब रात को खूब सूतल…. और सपने देखने लगे और बड़बड़ाने लगे…
“लिंक न होने से लिंकन की स्थिति बेहतर है”.हमरा सौभाग्य है कि हम “अ”,”अ”,”अ” के एक “अ” से तो लिंक हो ही गये.. आपको शायद मालूम हो हिन्दी चिट्ठाजगत के अमर,अकबर और अन्थोनी (एंथोनी इंगलिश में होता है) के बारे में …क्या कहा नहीं मालूम !!..ये लो जी ..इतना भी नहीं मालूम. ये तीन है “अ” हैं अभय ,अजदक और अनामदास.अक्सर साथ साथ ही पाये जाते हैं….हाँलांकि वो कहते हैं “लेखक हमेशा अकेला होता है, संघी नहीं” ..लेकिन जो दिखता है हम तो वही बोले… वैसे इनके साथ छोटी लाईन से सफर करने वाले एक “अ” और हैं…कोई सिदो हैमबर्गर हैम्ब्रम टाईप .. लेकिन वो अभी ट्रेनिंग ले रहे हैं…किसी छोटे शहर से आये हैं ..इसलिये नींद में बड़बड़ाकर उपन्यास लिखने की प्रैक्टिस कर रहे हैं… इस बात से इनकी पत्नी बहुत परेशान हैं… आप पूछेंगे वो कैसे ..वो होता क्या है ..ये नींद में बड़बड़ाते हैं और उनकी पत्नी हाथ में कॉपी,पैन लेकर बैठी रहती हैं कि जैसे ही ये बोलें वो नोट कर लें…. इनको किसी ने बता दिया कि ब्लॉग एक डॉट कॉम होता है…तब से हर नंगे और भूखे को खोज रहे हैं कि भला ये कौन सी नयी कौम आ गयी..जिस दिन इनको वो कौम मिल जायेगी उस दिन ये भी छोटी लाईन से बड़ी लाईन में आकर लाईन मारने लगेंगे…

अब हम अपने लिंकन के बारे में बता रहे थे.. हमारे लिंकन की तीन अवस्था हैं जो हर लिंक्ड के जीवन में आती ही हैं .. जब कोई नया नया लिंक्ड होके प्यार की पहली अवस्था को प्राप्त होता है तो वो स्थिति सबसे सुखद और बेहतर होती है…. आपको अपने लिंकित के प्रति अगाध श्रद्धा होती है… उसकी काँव काँव भी कोयल की कूक लगती है… आप उसके कांटो को भी पुराण की भाँति बांचते हैं.. दुनिया में उसके सिवा कोई नहीं होता ..सिर्फ आप और आपका लिंकित … आपको “लिंकित” होकर “कलंकित” होने का कोई डर नहीं होता .. आप हवा में उड़ने लगते हैं ..आपके पास सारी दुनिया से लड़ने की ताकत आ जाती है…आप और आपका लिंकित अक्सर ये सोचते हैं ..कि काश ऎसे ही जिन्दगी की शाम हो जाये… कल रात तक हमारी भी ऎसी ही स्थिति थी ..जब हम लिंकन की पहली अवस्था में थे …चित्र एक देखें … सिर्फ हम और हमारा लिंकित …
फिर जब आप हवा से जमीन की ओर कदम बढ़ाने लगते हैं …तो आपको जिन्दगी की कुछ कुछ हकीकत मालूम होती जाती है….समझ में आता है कि “और भी लिंक हैं जमाने में इसके सिवा” .. तो फिर “पुराण” “कांटे” में परिवर्तित हो जाता है ..पूछ्ने पर पता चलता है अब इन्हें “ज्ञानदत का ज्ञान” प्राप्त हो रहा है ..बुरा हो इस “ज्ञान” का जो हमारे बीच में आ गया . चित्र 2 देखें … इसी “ज्ञान” के कारण सारा झमेला हो गया.. लेकिन फिर भी मन में संतोष की चलो कोई बात नहीं चला लेंगे .थोड़ा बहुत टाइम तो मिलेगा ही ना लिंकित का….चला लेंगे जी वैसे भी ज्ञान प्राप्त होना अच्छी बात है… लोग तो अपनी बीबी बच्चे कि छोड़ कर ज्ञान की तलाश करने भाग जाते हैं ..इन्हें तो घर बैठे ही ज्ञान प्राप्त हो गया….

ये दुनिया का नियम है कि यहां परिवर्तन के अलावा कुछ भी स्थायी नहीं ..परिवर्तन ही पृकृति का नियम है… यही प्यार की तीसरी अवस्था होती है… जब आप पूरी तरह जमीन में आ चुके होते हो तब आपको पता लगता है असली जिन्दगी का स्वाद ..आप नून तेल लकड़ी के चक्कर में पड़ जाते हैं ..आप का लिंकित दुनिया के झमेलों के बीच कहीं छूट सा जाता है… चित्र 3 देखें…यही है असल जिन्दगी जहां आप जीवन की धमाचौकड़ी में केवल एक लिंकन से काम नहीं चला सकते… आपको कई जगह लिंक बनाने होते है.. “बिना लिंक सब सून” वाली अवस्था है…. जितने ज्यादा लिंक उतना ज्यादा नाम और दाम … अब ये बात हमारे भी समझ में आ गयी इसलिये हमें कोई ऎतराज नहीं ..हम तो खुश हैं कि हम लिंकित हैं……
** एक चीज और देखियेगा …पहले अंतरंग तीन थे अब सिर्फ दो ..ये क्या माजरा है…ये तो भाई अजदक ही जानें…
मई 29, 2007

आज बात करते हैं हिन्दी के कुछ चिट्ठाकारों के साथ हुए मेरे अनुभवों की ..
कल लंच के समय बाहर निकला ही थी कि हिन्दी के एक चिट्ठाकार मिल गये.टीका-वीका लगाये थे और इतनी गर्मी में भी फ्रैश फ्रैश लग रहे थे … रिलांयस फ्रैश की तरह….लगता था जैसे अभी अभी हिल स्टेशन घूम के आये हों. कोई व्यक्ति जब परिवार के साथ किसी धाम की यात्रा करके आता है …विशेषकर बद्रीनाथ,केदारनाथ की …तो कुछ दिनों बड़ा ही आध्यात्मिक सा बना घूमता रहता है …वैसे ही वह भी घूम रहे थे.हमें देख वैसे तो गाली देने का मन कर रहा होगा (प्रोफेशनल राइवैलरी जनाब!! ) लेकिन अच्छी अच्छी बातें करने लगे.अरे आप तो कभी मिलते ही नहीं… मिलिये ना कभी कहीं….हमने कहा ….अरे अभी नहीं कुछ दिनों रुक जाइये… थोड़ा नाम वाम हो जाने दीजिये … फिर आयेंगे ताकि ज्यादा नहीं तो कुछ गोपियां तो हमारा भी इंतजार करते मिलें…
अरे नहीं जी आपका नाम तो हो ही गया ….कल ही हम तीन चार हिन्दी चिट्ठाकार मिले थे तो आपकी ही चर्चा कर रहे थे.
हाँ चर्चा तो कर ही रहे होंगे…. पीठ पीछे गाली देने का अवसर कौन जाने देना चाहेगा….
अरे नहीं जी वहां तो ये चर्चा हो रही थी कि आप कितना अच्छा लिखते हैं.
हम समझ गये कि ये पक्का बद्रीनाथ,केदारनाथ का असर है वरना हम यदि चर्चा में ही होते तो क्या टाइम्स मैगजीन में जगह ना पाते.अरे चिट्ठाजगत की टाइम्स मैगजीन फुरसतिया टाइम्स. लेकिन वो चढ़ाते रहे और हम चढ़ते रहे चने के झाड़ पर.
उनसे तो किसी तरह पीछा छुड़ाया लेकिन फिर हम सोचने लगे “चने के झाड़ पर चढ़ने-चढ़ाने” के बारे में.इसकी चर्चा बाद में ….पहले आपको एक और घटना के बारे में बता दें.
पिछ्ले दिनो जब गधों और घोड़ों का बोलबाला था तब एक दिन कुछ घोड़े मिल गये.घोड़े वैसे ही गधों से दोस्ती करना पसंद नहीं करते.. इसीलिये शायद वो हम से नहीं बोले लेकिन आपस में कुछ गहन वार्तालाप सा करते प्रतीत हुए . हम ध्यान लगाकर उनका वार्तालाप सुनने की कोशिश करने लगे.
अरे हमें सरकार से इस बाबत बात करनी चाहिये…
हाँ हाँ ..क्यों नहीं ये तो हमारी इंटेल्क्चुअल प्रोपर्टी है…
हमारे दिमाग में बात समझ में नहीं आयी..दो विद्वानों की बातचीत के बीच में घुसने वाले मूर्ख को वैसे भी कोई बात समझ नहीं आती.. तो हमने पूछ ही लिया कि क्या बात है…
पहले तो एक युवा घोड़े ने हमें अपनी आक्रामक नजरों से घूरा …जैसे कोई तथाकथित धर्मरक्षक किसी नग्न पेंटिंग बनाने वाले चन्द्रमोहन को घूर रहा हो… फिर जब उसने परख लिया कि इस बंदे में भी मनमोहन सिंह की तरह कोई दम नहीं है तो वो बोला…अरे हमें एम एफ हुसैन और बहुत सी कंपनियों के खिलाफ आन्दोलन छेड़ना है …क्यों भाई .. अरे हुसैन साहब हम घोड़ों पर पेंटिग बनाते हैं और हमें रॉंयल्टी भी नहीं देते .. कनाडा वाले हमारे ऊपर पूरी की पूरी पोस्ट लिखते हैं ..खूब टिप्पणी भी पाते हैं पर हमें कुछ नहीं देते.. खुद कॉकटेल पी-पीकर मुटा रहे हैं … हिन्दुस्तान में जितनी भी शक्तिवर्धक दवायें बनती हैं उन में भी हमारी फोटो होती है .. लेकिन कोई हमें रॉयल्टी नहीं देता बल्कि हमें जेल डाला जा रहा है.. और तो और सारी मशीनों की रेटिंग भी घोड़ा-पावर यानि हौर्श-पावर में होती है…. उसके लिये भी हमें कुछ नहीं मिलता … उनकी बात में दम तो था….इसलिये हम चुप हो गये … लेकिन उन्होने अपना डिसकसन जारी रखा …
अरे यार आजकल तो मनुष्य अपनी बातों में भी गधो के साथ साथ हमें शामिल कर रहा है….
क्या बोलते हो बॉस!! एक छुटभैये “तोड़ देंगे फोड़ देंगे” नेता-टाइप घोड़े ने कहा.
हाँ !! कल दो तीन मनुष्य बात कर रहे थे …कंप्यूटर इन्ड्स्ट्री में देखो ना सारे गधे-घोड़े घुसे जा रहे हैं. आधे से ज्यादा तो इसमें गधे हैं और जो घोड़े भी थे उनसे भी गधों की तरह काम लिया जा रहा है…
तो क्या हम गधों के साथ मिलकर कोई मोर्चा खोलें… आजकल वैसे भी कई गधे विभिन्न मुद्दों पर कई शहरों में अपना मोर्चा खोल रहे हैं….
अरे वो ” मोर्चा अगेंस्ट खर्चा “वाले भी गधे ही हैं क्या … एक युवा उत्साही घोड़े ने पूछा…
चुप रहो यार सीरियस बात में भी बिना कुछ समझे बूझे कूद पड़ते हो यार ..हिन्दी चिट्ठाकार की तरह….
अब बहुत ज्यादा गालियां हम से सहन नहीं हुई ….वो लोग अपनी बात कर रहे थे पर हम वहां से सरक लिये …..
अब बतायें आपको चने के झाड़ वाली बात. चने के झाड़ की बात भी घोड़ों से ही सबंधित है. “चने के झाड़ पर चढ़ाना” एक मुहावरा है जो तब प्रयोग में लाया जात जब किसी भी व्यक्ति को ये झूठा अहसास दिलाना होता है कि वो श्रेष्ठ है. इसलिये उसे चने के झाड़ पर चढ़ाया जाता है कि बेटा तू अभी कुछ भी नहीं कर सकता चल पहले इस झाड़ पर चढ़ कुछ चने खा..थोड़ी ताकत वाकत बना घोड़े जैसी फिर तू कुछ कर पायेगा.अभी तो तू फिसड्डी है , बेकार है तुझे चने की सख्त जरूरत है.. इसीलिये हमारे वो चिट्ठाकार हमें कल चने की झाड़ पर चढ़ा रहे थे.
तो आपको बात समझ में आ ही गयी होगी ..
कल महिला सशक्तीकरण के विषय में हमारा बहुत ज्ञान बढ़ा जब कहा गया ” महिला सशक्तीकरण के चक्कर में पड़ने वाले बहुत जल्दी किसी भी किस्म की शक्ति से वंचित हो जाते हैं।” शायद इसीलिये बेचारे मनमोहन सोनिया जी के सशक्तीकरण के चक्कर में शक्ति से वंचित हो गये …
एक और चिट्ठाकर टिप्पणीओफोबिया से ग्रस्त हैं और कह रहे हैं “कोई बचाओ मुझे इस टिप्पणीओफोबिया से” हम तो उनको ये ज्ञान दे आये
आओ आओ ना घबराओ..
हाथ खोल के हाथ दिखाओ
टिपियासा के मारे हम भी
थोड़ा आके तुम टिपियाओ
देखना है कि वो आज आते हैं कि
बस एक बात और …. कल शाम एक चिट्ठाकार ने कुछ अच्छे अच्छे गाने सुनवाये …गाने बहुत अच्छे थे ..मैलोडियस ..हमने भी तारीफ कर दी ..कि हां जी अच्छा लगा गाने सुनकर ..पर ये क्या वो जेब से एक छोटी सी डायरी निकाल लिये ..बोले यहां लिख कर दीजिये ..हमने कहा क्यों? बोले …अरे सबको दिखायेंगे ना कि आपको अच्छा लगा..वो भी टिपियासा से ग्रस्त एक चिट्ठाकार थे….
मई 26, 2007
आजकल हमारी कंपनी , जिसमें मैं काम करता हूँ, में इंक्रीमेंट (वेतन बढ़ोत्तरी) का सीजन है…आमतौर पर अधिकतर कंपनियों में ये सीजन मार्च-अप्रेल के दौरान प्रारम्भ हो जाता है…इसकी शुरुआत होती है एक विशेष रंग में रंगे फॉर्म से (फॉर्म का रंग प्रत्येक कंपनी का अपना होता है लेकिन मेरे अनुभव के अनुसार अधिकतर कंपनियों में ये रंग नीला या हरा होता है) ..इस फॉर्म को “अप्रेजल” या “ऎप्रेजल फॉर्म” कहते हैं..आपका ऎप्रेजल आपका बॉस करता है…यानि कि आपकी परफॉर्मेंस का मूल्यांकन का काम आपके बॉस के हाथ में होता है… कहने को तो इस फॉर्म को आपके बॉस को आपके साथ बैठकर भरना होता है और आपके पिछ्ले पूरे वर्ष के काम के आधार पर आपको मूल्याकिंत करना होता है जो आपके इंक्रीमेंट का आधार बनता है पर आमतौर पर इसे आपका बॉस अकेले ही भर लेता है और इसका आधार साल भर में आपके द्वारा किये गये काम नहीं वरन आपके अपने बॉस के साथ तात्कालिक रिश्ते होते हैं …यानि इंक्रीमेंट सीजन में आप अपने बॉस के कितने करीब हैं उस पर ये निर्भर करता है ..इसीलिये इस सीजन में बहुत से लोग अपने बॉस के साथ मधुर संबंध बनाने का भरसक प्रयत्न करते हैं.. जिसे आम भाषा में चमचागिरी या तेल लगाना भी कहते हैं …
हाँ तो मैं कह रहा था कि हमारी कंपनी में भी अभी ये सीजन है ….कुछ विभागों में इंक्रीमेंट हो गये हैं कुछ में होने बाकी हैं … इसी विषय पर कल एक अनाम साथी ने एक रोमन अंग्रेजी में एक मेल भेजा .. जिसमें इंक्रीमेंट के बाद एक बॉस द्वारा अपने अधीन काम करने वाले को दिया गया ज्ञान है….. आजकल ऎसा ही ज्ञान ज्ञानदत्त जी भी दिया करते हैं…इसीलिये मैने अपने हिसाब से इसे देवनागिरी में परिवर्तित कर दिया है …आप भी ये ज्ञान ले लें….और बदले में कॉमेंट्स दे दें….

हे पार्थ !! (कर्मचारी),
इनक्रीमेंट अच्छा नहीं हुआ, बुरा हुआ…
इनसेंटिव नहीं मिला, ये भी बुरा हुआ…
वेतन में कटौती हो रही है बुरा हो रहा है, …..
तुम पिछले इनसेंटिव ना मिलने का पश्चाताप ना करो,
तुम अगले इनसेंटिव की चिंता भी मत करो,
बस अपने वेतन में संतुष्ट रहो….
तुम्हारी जेब से क्या गया,जो रोते हो?
जो आया था सब यहीं से आया था …
तुम जब नही थे, तब भी ये कंपनी चल रही थी,
तुम जब नहीं होगे, तब भी चलेगी,
तुम कुछ भी लेकर यहां नहीं आए थे..
जो अनुभव मिला यहीं मिला…
जो भी काम किया वो कंपनी के लिए किया,
डिग़्री लेकर आए थे, अनुभव लेकर जाओगे….
जो कंप्यूटर आज तुम्हारा है,
वह कल किसी और का था….
कल किसी और का होगा और परसों किसी और का होगा..
तुम इसे अपना समझ कर क्यों मगन हो ..क्यों खुश हो…
यही खुशी तुम्हारी समस्त परेशानियों का मूल कारण है…
क्यो तुम व्यर्थ चिंता करते हो, किससे व्यर्थ डरते हो,
कौन तुम्हें निकाल सकता है… ?
सतत “नियम-परिवर्तन” कंपनी का नियम है…
जिसे तुम “नियम-परिवर्तन” कहते हो, वही तो चाल है…
एक पल में तुम बैस्ट परफॉर्मर और हीरो नम्बर वन या सुपर स्टार हो,
दूसरे पल में तुम वर्स्ट परफॉर्मर बन जाते हो ओर टारगेट अचीव नहीं कर पाते हो..
ऎप्रेजल,इनसेंटिव ये सब अपने मन से हटा दो,
अपने विचार से मिटा दो,
फिर कंपनी तुम्हारी है और तुम कंपनी के…..
ना ये इन्क्रीमेंट वगैरह तुम्हारे लिए हैं
ना तुम इसके लिये हो,
परंतु तुम्हारा जॉब सुरक्षित है
फिर तुम परेशान क्यों होते हो……..?
तुम अपने आप को कंपनी को अर्पित कर दो,
मत करो इनक्रीमेंट की चिंता…बस मन लगाकर अपना कर्म किये जाओ…
यही सबसे बड़ा गोल्डन रूल है
जो इस गोल्डन रूल को जानता है..वो ही सुखी है…..
वोह इन रिव्यू, इनसेंटिव ,ऎप्रेजल,रिटायरमेंट आदि के बंधन से सदा के लिए मुक्त हो जाता है….
तो तुम भी मुक्त होने का प्रयास करो और खुश रहो…..
तुम्हारा बॉस कृष्ण …
ये सुनकर तो हम तो शांत हो गये…आपका क्या विचार है……
मई 24, 2007
Posted by kakesh under
प्यार,
यूं ही
टिप्पणी करे

आपने जिम और डेला की कहानी तो पढ़ी ही होगी…यदि नहीं पढ़ी तो थोड़ा इसके बारे में भी बता दूं..
ये कहानी ओ हैनरी ने लिखी थी. ..कहानी का नाम था “The Gift of the Magi”
जिम और डेला नाम के दो दम्पति अमरीका के न्यूयार्क शहर में रहते थे. दोनों बहुत गरीब थे लेकिन एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे. जिम के पास एक घड़ी है लेकिन उसकी चेन उसके पास नहीं है .जिम के पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि वो नयी चेन खरीद सके.डेला के बाल बहुत ही घने ,लंबे और सुन्दर हैं.जिम को भी डेला के बाल बहुत अच्छे लगते हैं. जिम को अपनी घड़ी और डेला को अपने बालों से बहुत प्यार है. क्रिसमस बस अब एक ही दिन दूर था. डेला के पास सिर्फ कुछ ही पैसे थे …लगभग 1 रुपये 87 पैसे … पर वह जिम को एक अच्छा सा क्रिसमस का उपहार,उसकी घड़ी के लिये एक चेन, देना चाहती थी.डेला जब चेन खरीदने गयी तो उसे पता चला कि चेन का दाम 21 रुपये था. डेला सोच में पड़ गयी और उसने एक बिग बनाने वाली को अपने बालों को बेचने का निर्णय लिया. इस तरह उसने 20 रुपये कमाए और एक अच्छी से चेन खरीद कर,बढ़िया सा खाना बनाकर वह जिम की प्रतीक्षा करने लगी.. वह खुश थी और इस बात की कल्पना कर थी कि कैसे जिम इस चेन को देख कर चौंक जायेगा.हाँलांकि वो थोड़ा डर भी रही थी कि कहीं उसके कटे हुए बालों को देखकर जिम नाराज ना हो जाये.
जब जिम वापस लौटा तो वो चकित ही रह गया लेकिन डेला के छोटे,कटे हुए बालों को देखकर.उसने डेला को भयभीत कर देने वाली नजरों से घूरा.डेला ने डरते डरते बताया कि कैसे उसने जिम के लिये घड़ी की चेन लेने के खतिर अपने बालों को बेच डाला. जिम ने उसे समझाया कि उसे डरने की आवश्यकता नहीं है क्योकि उसका प्यार इन छोटी छोटी बातों से कम नहीं होगा लेकिन वह भी डेला के लिये एक क्रिसमस का उपहार लाया था और ऎसा कहके उसने अपने हाथ का लिफाफा डेला के हाथ में पकड़ा दिया. डेला ने जब लिफाफा खोला तो उसमें डेला के लिये वो खूबसूरत कंघे थे जो वह खरीदना चाहती थी पर मँहगे होने के कारण खरीद नहीं पायी थी. डेला ने भी अपना उपहार यानि की घड़ी की चेन जिम को दी और कहा कि वह उसे घड़ी में लगा कर पहने..जिम के उत्तर से डेला और भी चौंक गयी क्योकि उन खूबसूरत कंघों को खरीदने के लिये जिम ने अपनी घड़ी बेच दी थी.
तो ये तो थी ओ हैनरी साहब की कहानी जो कभी बचपन में पढ़ी थी…वैसे यदि आप ये पूरी कहानी अंग्रेजी में पढ़ें तो और भी मजा आयेगा …. अब इसी से मिलती जुलती दो घटनाऎं जो मेरे सामने ही घटीं मेरे मित्र के साथ….एक दूसरे को सरप्राईज करने के चक्कर में ….आप भी देखिये……
जब मेरे मित्र का प्रेम प्रसंग चल रहा था तो उनकी तब की प्रेमिका और अभी की पत्नी कॉलेज में पढ़ा करतीं थीं…. मित्र का ऑफिस का रास्ता और उनकी प्रेमिका जी का रास्ता एक ही था पर फिर भी वो लोग एक दूसरे को देख भी नहीं पाते थे…क्योकि मित्र साढ़े आठ बजे के आसपास ऑफिस के लिये निकलते थे और प्रेजी साढ़े दस बजे के आसपास .. तो सारा वार्तालाप फोन तक ही सीमित था…. एक दिन प्रेजी को कॉलेज जल्दी जाना था ….करीब नौ बजे… तो वो मित्र को बोली कि आप कल थोड़ा सा देर से चले जाना ताकि रास्ते में हम एक दूसरे को देख सकें … वो अभी तक दुनिया के सामने एक दूसरे को देखने तक ही सीमित थे…. मित्र ने कहा नहीं मैं तो साढ़े आठ बजे ही जा पाउंगा क्योकि मुझे तो नौ बजे ऑफिस पहुंच जाना होता है .. तुम थोड़ा जल्दी आ जाओ ..प्रेजी बोली नहीं इतनी जल्दी मैं घर में क्या बोलकर निकलुंगी … तो अंत:त ये हुआ कि चलो फिर कभी ऎसे मौके की तलाश की जायेगी आज जाने दें…..
लेकिन अब प्रेजी ने सोचा चलो मित्र को चकित करते हैं …. तो प्रेजी घर से किसी तरह बहाने बनाकर सुबह साढ़े आठ बजे निकल दीं…इधर मित्र चकित होने नहीं चकित करने के मूड में थे ….वो ये सोच कर थोड़ा रुक गये…चलो नौ बजे निकलते हैं ताकि प्रेजी के दर्शन हो जांये … दोनो एक दूसरे को चकित करने के चक्कर में एक दूसरे के दर्शन नहीं कर पाये….
दूसरी घटना उन्हीं मित्र के साथ कल हुई …. वह प्रेजी अब पजी हैं …यानि उनकी पत्नी जी हैं….
मेरे मित्र को कुछ कपड़े लेने थे … उन्होने मुझसे कहा कि यार आज शाम को ऑफिस के बाद चलो ..कपड़े ले लेते हैं …मैने उन्हें सलाह दी (और अपना पीछा छुड़ाना चाहा) कि यार अब तो कपड़े भाभी की पसंद के ही लिया करो …शाम को चले जाओ भाभी के साथ… वो बोले यार अब बच्चों के साथ उसको कहाँ इतनी फुरसत रहती है …चलो फिर भी तू कहता है तो एक बार बात करता हूँ….उन्होने फोन किया और अनुरोध किया (शादी के बाद पति सिर्फ अनुरोध ही कर सकता है) कि वो शाम को उनके ऑफिस के पास चले आये …वो ड्राइवर को गाड़ी ले के भेज देंगे …. तो पजी ने जबाब दिया कि घर में इतने सारे काम पड़े हैं और फिर इतने छोटे छोटे बच्चों के साथ मार्केट जा पाना संभव नहीं है … साथ ही ये नसीहत भी दे डाली कि अपने कपड़े भी खुद नहीं खरीद सकते.. अरे कुछ काम तो खुद कर लिया करो… फिर आदेश जैसा दिया कि आज शाम को जल्दी घर आ जाना ..मित्र का मूड तो ऑफ हो ही चुका था ..वो बोले ….नहीं आज जल्दी नहीं आ सकता.. ऑफिस में आज बहुत काम है…..और फोन रख दिया …..
लेकिन घटना यहाँ खतम नहीं हुई …फोन रखने के बाद मित्र ने सोचा कि चलो यार आज चले ही जाते हैं घर जल्दी …रास्ते से कपड़े भी ले लेंगे …और कर देंगे पजी को सरप्राईज वो भी तो देखे कि हम अपना काम खुद भी कर सकते हैं …और सारा कामधाम निपटा के 4 बजे ही ऑफिस से निकल गये (बांकी दिन 6.30 बजे तक निकलते थे) … धूप और गर्मी में पार्किंग में पहुंचे तो देखा गाड़ी तो थी ही नहीं … ड्राइवर को फोन किया तो वो बोला कि वो अभी गाड़ी ले के कहीं गया है … पूछ्ने पे कि कहाँ गया है ?…वो बोला ‘सरप्राईज’ है.. … गुस्सा तो बहुत आया होगा मित्र को ..इसी गुस्से में घर फोन किया गया पजी को पूछ्ने के लिये कहीं उसने तो ड्राइवर को कहीं नहीं भेज दिया …. तो पता चला कि पजी ने ड्राईवर को घर बुलाया था …तकि पजी गाड़ी में ऑफिस आ सकें और शाम को मित्र के लिये कपड़े खरीद सके….मित्र का गुस्सा और बढ़ गया ..और वो बोले अभी कहीं नहीं जाना है ..पत्नी बोलती ही रह गयी …पर मित्र ने फोन काट दिया….. और मुँह लटका के धूप में ऑटो का इंतजार करने लगे……घर जाने के लिये…..
तो ये था सरप्राईज का कमाल ….तो आप इस तरह से सरप्राईज करने कराने से बचियेगा…..
मई 23, 2007
Posted by kakesh under
काम की बात
[10] Comments
जब रवि जी ने बताया कि भोमियो में अब प्रोक्सी सर्वर के द्वारा बहुत सी भाषाओं मे लिप्यांतर की सुविधा है तो बहुत से चिट्ठाकारों ने अपने अपने चिट्ठे मे लिप्यांतर का कोड लगा दिया.इसे लगाने में देर मैने भी नहीं की और अपने ब्लॉगस्पॉट वाले चिट्ठे पर इसे लगा दिया.
तब तो लगा नहीं कि इससे कुछ लाभ भी होगा लेकिन चुंकि रवि जी कह रहे थे कि ये बड़े काम की चीज है तो इसे लगा ही दिया.आज उसका पहला लाभ पता चला. जब मेरी सात दिन पहले लिखी हुई पोस्ट पर उड़िया भाषा में एक टिप्पणी मिली.
” ବହୁତ ସୁନ୍ଦର ବ୍ଲୋଗ୍ ଟିଏ କରିଛନ୍ତି. ଯାହା ହେଉ ଓଡିଆ ଲିପିରେ ଏହାକୁ ପ୍ରକାଶନ କରିଥିବାରୁ ମୁଁ ଆପଣଙ୍କୁ ଅଶେଷ ଧନ୍ୟବାଦ ଜଣାଉଛି. ଏହାର ଅନୁକରଣ କରି ଆପଣ ଏକ ଓଡିଆ ଭାଷାରେ ବ୍ଲଗ୍ ଟିଏ ନିର୍ମାଣ କଲେ ପ୍ରୀୟ ଓଡିଆ ଭାଇ ଭଉଣୀ ମାନେ ଆପଣଙ୍କ ଉପରୋକ୍ତ ସୁନ୍ଦର ହସକଥା ଗୁଡିକର ମଜା ନେଇ ପାରିବେ.
ଧନ୍ୟବାଦ
ବନ୍ଦେ ଉତ୍କଳ ଜନନୀ ”
हिन्दी में लिप्यांतर किया तो कुछ ऎसा था.
” बहुत सुन्दर ब्लोग् टिए करिछन्ति. याहा हेउ ओडिआ लिपिरे एहाकु प्रकाशन करिथिबारु मुँ आपणङ्कु अशेष धन्य़बाद जणाउछि. एहार अनुकरण करि आपण एक ओडिआ भाषारे ब्लग् टिए निर्माण कले प्रीय़ ओडिआ भाइ भउणी माने आपणङ्क उपरोक्त सुन्दर हसकथा गुडिकर मजा नेइ पारिबे.
धन्य़बाद
बन्दे उत्कळ जननी”
मैं बहुत ज्यादा उड़िया तो नहीं जानता लेकिन जितना जानता हूँ उससे लगता है कि मेरे उड़िया पाठक कहना चाहते हैं कि
” आपने बहुत सुन्दर चिट्ठा बनाया है. इसका उड़िया भाषा में प्रकाशन किया इस हेतु मेरा धन्यवाद . ..इसी का अनुकरण कर ….(आगे समझ नही आता) …इस सुन्दर व्यंग्य को पढकर मजा आया.”
तो ये है भोमियो का फायदा. इसलिये जिन्होने अभी तक इसे नहीं लगाया है इसे जल्दी से लगा लें …
मई 17, 2007

मेरा ऎलान :ये मेरी व्यक्तिगत रुचि-अरुचि से जुड़ी हुई मौज है- आप इस पर या तो प्रशंसा भाव से (टिप्पणी) लिखें, या आलोचना की एक ग्राह्य शैली में ही अपनी (टिप्पणी) बात रखें. लेकिन जो भी करें …करें जरूर.
अभी आज ही जब हमने इतना अच्छा गाना गाया तो लोगों ने सुना ही नहीं (अभी भी सुन लीजिये भाई) ….. बस कुछ लोग आदतन आये और पीठ थपथपा के निकल लिये… हमारे भेजे में ये बात ही नहीं आयी कि ऎसा आखिर क्यों कर हुआ …हम सिर पकड़ कर बैठ गये कि कुछ शोर सा हुआ …फिर ध्यान से सुना तो कुछ आवाजें सुनायी दी…आवाजें पड़ोस से ही आ रहीं थी.
बाहर निकले..जैसे जैसे नजदीक बढ़ते गये शोर बढ़ता गया….
एक : मैं तुम्हारे सामाजिक दायित्वबोध से खुश नहीं हूँ.
दो : लेकिन मेरी दाल-भात…
इस शोर गुल के बीच हम मौकाए वारदात पर पहुंचे… पास जाकर देखा तो अपने ही पड़ोस के दो दुकानदार थे जो आपस में लड़ रहे थे. हमने बीच बचाव करते हुए एक से पूछा …जो ज्यादा हल्ला मचा रहा था और ऊंची ऊंची आवाज में बोल रहा था….
भाई आखिर बात क्या है…किस बात की लड़ाई है….
एक : अरे ये जो पंडित जी है ना…
हम : कौन पंडित जी…???
तभी हमारी नजर गुलाबी गमछा-धारी सज्जन पर पड़ी… इतनी गरमा गरमी से माथे पर पसीने की बूदें चुहचुहा रहीं थी… माथे का पसीना गमछे से पोंछ्ते हुए बोले..
दो : देखिये मेरी यहां पर एक दुकान है …जिसमें मैं खुद दाल-भात बनाता हूँ… खुद भी खाता हूँ और लोगों को भी खिलाता हूँ….
तो …!!! हमने पूछा …
एक : अरे यहीं हमरी भी एक दुकान है….
हम : और … आप क्या बेचते हैं….????
एक : हम सभी कुछ बेचते हैं …. बिरयानी…. नमक मिर्च लगा के चिकन…मटन.. .मच्छी…
पंडित जी : छी: ..छी: ..छी: ..छी: ….. नाक भों सिकोड़ कर पंडित जी बोले.
हमारा : तो आप पूरी तरह शाकाहारी है .
एक : शाकाहारी..!!…. ये जनाब तो प्याज लहसुन भी नहीं खाते….
हम : तो इसीलिये इनको …आपसे प्रोब्लम है….
एक : अरे प्रोब्लम इनको हमसे नहीं ….हमको इनसे है…
हम : वो क्यों….???
एक : अरे आजकल लोग इनकी दाल-भात को हमारी बिरयानी से ज्यादा पसंद कर रहे हैं…
हम : लेकिन लोग तो पहले वो नमक मिर्च वाला …चिकन …मटन ….
दो : खाते थे…लेकिन जब साफ-सुथरा,स्वादिष्ट,स्वास्थवर्धक भोजन इतने कम दामों में मिले तो लोग वो क्यों लें ये ना लें…
हम : मान गये भाई पंडित जी …
पं : किसे…..
हम : आपकी पारखी नजर और आपके दाल भात को….
एक : लेकिन इससे मैं तो नहीं मानुंगा ना….
हम : क्यों…??
एक : अरे मेरा नुकसान हुआ जा रहा है और आप….
अब “एक” तैश में आ गये थे. हमने उनसे पूछा …क्या आप भी खाना खुद ही बनाते हैं ??
एक : कोशिश तो करता हूँ ..पर मुझसे ढंग का खाना बनता ही नहीं..इसलिये ज्यादा नहीं बनाता ..
तो क्या करते हैं ??
एक : मैं तो दूसरों के बनाये खाने को अपनी दुकान में सजाता हूँ …हाँ खाना कैसा भी हो,किसी ने भी बनाया हो उसे नमक मिर्च लगा के सजाने का काम मैं ही करता हूँ और अपने मन माफिक परोसता हूँ …
वो ठीक है … लेकिन आपको दूसरों के दुकान के खाने से क्या मतलब…?? कोई बिरयानी खाये-खिलाये या दाल भात ..क्या फरक पड़ता है….?????
एक : नहीं जी .. फरक कैसे नहीं पड़ता ..यदि किसी की दाल भात की दुकान चल निकली तो मेरे लजीज व्यंजनों का क्या होगा…?
हम : लेकिन व्यंजन तो आपको लजीज लगते हैं …हो सकता है लोगों को वो पसंद ना हों…
एक : अरे पसंद करना पड़ेगा … कैसे नहीं करेंगे …??? जब ये अपनी दुकान में दाल-भात रखेंगे ही नहीं तो फिर उसे खायेगा ही कौन….? भूखा आदमी इधर ही आयेगा ना …!! उनके होंठों पर कुटिल मुस्कान थी….
उनकी बात सुनकर पंडित जी भड़क उठे ..अरे ये क्या बात हुई … मेरी दुकान है… मैं निर्धारित करुंगा कि मुझे क्या बेचना है…
तभी पीछे खड़े और अभी तक चुपचाप सारा माजरा देखने वाले चूहा नुमा एक व्यक्ति सामने आये और बोले….(उन को ठीक से हिन्दी भी नहीं बोलनी आ रही थी…गले से आवाज नहीं निकल रही थी….पर फिर भी बोले….)
आप इतना भड़कीये मत पंडित जी की यहां पर आपका जो मन करेगा वही माल बेचेंगे…!!! …नहीं…. आपका एक सामाजिक जीवन है और ताक़त के षडयंत्र को समझने सोचने वाले लोग बहुत नहीं हैं इसलिए आप जैसे ही लोगों से उम्मीद की जाती है तभी कोई बात कही जाती है और कोई वाद और गुट का मामला नही है हम लोगों को एक बेहतरीन समाज बनाने के क्रम मे कई भावुक और परंपरागत बातों को छोड़कर अपने आप में भी बदलाव लाना होगा. बेचारों का विकास होते रहना चाहिए ताकि भाई…. चारा बरक़रार रह सके.
अब वो भाई कौन से चारे की बात कर रहे थे ये तो हमें समझ में आया नहीं. हमने फिर बीच बचाव करते हुए उनसे कहा….देखिये महोदय आप चुप रहिये…और “एक” से बोले…

अरे पंडित जी को लगा लेने दो ना जिस भोजन की दुकान लगाना चाहते हैं ..आप क्यों बेकार की बहस में पढ़ते हैं.
देखिये ये एक सार्वजनिक स्पेस में अपने भोजन को ला रहे हैं- इसलिए उस पर बात-बहस तो होगी।
लेकिन हम तो सिर्फ भोजन ही बेच रहे हैं ..हमें दाल भात अच्छा लगता है इसलिये वही बनाते,खाते खिलाते हैं……पंडित जी थोड़ा भावुक होकर बोले….
एक : सार्वजनिक संवाद में इस कदर भावुक होंगे, तो काम नहीं चलेगा।
पंडित जी : तो क्या करूं .. लड़ूं आपसे …!!
एक : नहीं ….हमारा समर्थन कीजिये…
पंडित जी : जी नहीं ..मैं आपका समर्थन नहीं करता ..
एक : तो आप हमारा विरोध करते हैं…!!
पंडित जी : जी नहीं ..मैं आपका विरोध भी नहीं करता ..
एक : ये क्या कुछ तो करना ही पड़ेगा ही ना…
हम : अरे ये तो वही बात हो गयी … हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे.
पंडित जी : कहने तो ये भी कह सकते हैं … आप डूबे बामना , ले डूबे जजमान…
अब जो भी है इस किस्से को यहीं खतम करो ना यार…हमारी बात सुन कर वो लोग थोड़े संभले…
अब रात ज्यादा गहरा रही थी…दोनों अपने अपने पक्ष में कुछ और तर्क जुटाने ,थोड़ी और भीड़ बढ़ाने के इरादे से अपनी अपनी राह चल दिये…
हम दोनों को जाते देर तक देखते रहे…फिर हम भी घर की ओर चल दिये….

मई 16, 2007
अरूण भाई ने कल जब अपनी करुण कहानी सुनायी तो हमने सोचा कि अरूण भाई से दोस्ती निभा ही लें (वैसे दोस्ती नहीं निभानी थी..हमें तो डर था कि कहीं हमसे ही पंगा ना ले लें) और उसी भावावेश में लिख दिया.
अरे अपने बिरादरी के लोगों से कैसा घबराना,
जरूरत पड़े तो हमें भी ले जाना ,
बहुत दिनों से भाई लोगों से बाते नहीं हुई,
चलो फिर मिल गया मिलने का बहाना.
हमने तो सच्ची मुच्ची इसलिये लिखा था कि पंगेबाज वैसे ही सबसे पंगा लेते रहते हैं कहीं फिर रास्ते में किसी मोहल्ले में…….खैर जाने दीजिये…..इसीलिये सोचा कि अपने सुरक्षा दस्ते के साथ हम भी चले चलेंगे इसी बहाने भाई लोगों से भी मुलाकात हो जायेगी. (जब से हमें कनाडा वाले नामी-गिरामी-ईनामी गदहा लेखक का पता चला तब से हम डर के मारे सारे गदर्भों को भाई कहने लगे हैं).
हमने अपना सुरक्षा दस्ता एडवांस में पंगेबाज जी के घर भेज दिया और खुद चुपचाप सजने संवरने में लग गये…..भला हो इस कनाडा वाली उड़नतस्तरी का ..न जाने उसको सारी बातें कैसे पता लग जाती हैं !!….अरे पता क्यों ना चले ….खुद चिट्ठा चर्चा का जिम्मा किसी और को पकड़ाकर इधर उधर घूम घूम कर टिपियाते रहते हैं.
उनके इस तरह टिपियाने की कला को देख कर किसी ने ठीक ही कहा है….
जहां ना पहुंचे रवि (रतलामी),वहां पहुंचे कवि (समीर-नामी)
खैर जब पता ही लग गया तो हमने सोचा कि चलो हम भी बता दें अपनी ‘गधा मिलन’ की दास्तान ……
लेकिन पहले हम अरुण भाई से एक शिकायत कर लें…आप हमसे इतना बड़ा पंगा काहे लिये भइया …कल आपने क्या लिखा था
“उन्होने हमें कल शाम तक की छूट दी है कि हम कल शाम को गधों की बस्ती में जाकर समस्त गधों के सामने श्री गर्दभ राज जी से बात करेंगे और माफ़ी भी मागेंगे …….”
अब क्या आप को मालूम नहीं हम दिमाग से थोड़ा पैदल हैं …हम नहीं समझ पाये आपके शब्दों को …हमको क्या मालूम था कि वो गधों की बस्ती नोयडा सेक्टर १६ अ में है… और आप वहां जाकर समस्त गधों के सामने श्री गर्दभ राज जी से बात करेंगे… और आज जब आपने लिखा
“कई सारी छोरियां उन्हें ऐसे पूछ रही थी जैसे हम हम ना हुये, उनके सेक्रेटरी हो और उनके आने से पहले मौका मुआयना पर आये हो”
तब हमारा माथा ठनका …अरे नोयडा की छोकरियों को उड़न तस्तरी से क्या वास्ता …फिर जब उनके गदहा लेखक वाली छवि दिमाग में आयी तो सब कुछ साफ हो गया.. अरे “सारी (गदर्भ) छोरियां ” क्यों ना पूछें उड़न तस्तरी के बारे में …. आपको याद नहीं ….जब उधौ गोकुल पहुंचे थे तो कैसे सारी की सारी गोपियों ने उन्हें घेर लिया था.
अंखिया हरि दरसन की प्यासी।
देख्यो चाहतिं कमलनैन कों निसि दिन रहतिं उदासी॥
आए ऊधौ फिरि गए आंगन डारि गए गर फांसी।
वो ये भी कहती हैं कि उनका एक ही तो दिल था जो समीर श्याम संग कनाडा मथुरा चला गया
ऊधौ मन न भए दस-बीस।
एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस॥
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु ज्यों देही बिनु सीस।
तो हमें तो सारा राज समझ आ गया …. लेकिन अब समझ में आके भी क्या फायदा तब तो आया नहीं समझ में और हम चल दिये गधा मिलन समारोह के लिये… ये गाना गाते गाते …..
गधा मिलन को जाना, हाँ गधा मिलन को जाना
जग की लाज……., मन की मौज…….., दोनों को निभाना…..
गधा मिलन को जाना, हाँ गधा मिलन को जाना
ढेंचू ढेंचू सीख ले, पंगा लेना छोड़ दे -2
खुद के लिये तू सीख ले -2
हर चिट्ठे पे टिपियाना …..गधा मिलन को जाना
उड़न-थाली का नाम है, सबको फंसाना काम है
आदत बड़ी बदनाम है..-2
धीरे-धीरे ,हौले-हौले
दबे पांव चले आना….. गधा मिलन को जाना
ओले पड़े हैं आज, आंधी का भी है साथ – २
कैसे कटे कठिन बाट – २
चल के आज़माना, गधा मिलन को जाना
हां गधा मिलन को जाना, जाना
गधा मिलन को जाना, जाना
गधा मिलन को जाना, हां
गधा मिलन को जाना
अब मीटिंग में क्या हुआ ये तो बतायेंगे कल….आज इतना ही..
मई 15, 2007
Posted by kakesh under
बहस
[8] Comments
क्या आपको मालूम है आप अपने घर में अब योगाभ्यास नहीं कर सकते ? क्योंकि यदि आप योगाभ्यास करेंगे तो आपको श्री विक्रम चौधरी जी को पैसे देने पड़ेंगे…..क़्योकि योग का आविष्कार भले ही उन्होने न किया हो योग का पेटेंट उनके नाम जरूर है.
आज सुबह जब उठा तो सोचा बहुत मोटे हो रहे हैं थोड़ा योगाभ्यास कर लें.हम बचपन से ही योग (योगा नहीं) करते रहे हैं-ये रामदेव जी के आस्था में आने से बहुत पहले की बात है-पर पिछ्ले 6-7 सालों में धीरे धीरे योग और व्यायाम घटते गया और वजन बढ़ता गया.आज जब पार्क में योग करने गये तो एक मित्र मिल गये और उन्होने बताया कि अब भविष्य में इस तरह से योगाभ्यास करना या किसी को सिखाना मँहगा पड़ सकता है.
समाचार ये है कि ..कलकत्ता में जन्मे ,अमरीका के वेवरले हिल्स में रहने वाले, जाने माने योग विशेषज्ञ
श्री विक्रम चौधरी ने योग का पेटेंट अपने नाम करने का आवेदन दिया है. शायद आपको पता हो कुछ समय पहले हल्दी और बासमती के पेटेंट के लिये भी आवेदन दिये गये थे.
कौन हैं ये विक्रम चौधरी …और क्या है उनका पेटेंट …?
विक्रम चौधरी ने अपना पहला योग स्कूल 1973 में सैन फ्रेंसिस्को में खोला था और आज उनके पूरी विश्व भर में 900 से ज्यादा ऎसे स्कूल चल रहे हैं .उनके शिष्यों में मैडोना और सेरेना विलियम्स भी शामिल हैं. अमरीका में योग व्यवसाय खूब फल फूल रहा है और इस व्यवसाय में विक्रम योग स्कूल का अग्रणी नाम है . एक अनुमान के अनुसार अमरीका में योग सालाना 25 अरब डॉलर का व्यापार करता है.
अमरीकी पेटेंट और ट्रेडमार्क कार्यालय ने 150 योग संबंधित कॉपीराइट और 2315 योग ट्रेडमार्क आबंटित किये है. इसका मतलब उन योग क्रियाओं का प्रयोग,बिना किसी को पैसा दिये करना अवैध माना जायेगा.
विक्रम चौधरी का कहना है कि उन्होने सिर्फ 26 ऎसे योगक्रियाओं को पेटेंट करवाया है जो यदि उसी क्रम में की जायें तो व्यक्ति को बहुत लाभ पहुंचाती हैं. उनका कहना है कि इन क्रियाओं को कोई भी, इसी क्रम में या किसी और क्रम में भी,किसी को नहीं सिखा सकता.यदि कोई सिखाना ही चाहे तो उसे 1500 डॉलर दे के चौधरी जी के इंस्टीट्यूट से इसकी ट्रेनिंग लेनी पड़ेगी. इतना ही नहीं इसके बाद उसे चौधरी जी का फ्रेंचाइजी बनना पड़ेगा और नियमित पैसा देना पड़ेगा.
भारत की बौद्धिक संपत्ति का दूसरे देशों,विशेषकर अमरीका में, इस तरह का उपयोग कहाँ तक उचित है ??
मई 8, 2007
(इस पोस्ट को साइबर कैफे से ऑनलाइन हिन्दिनी औजार का प्रयोग कर लिख रहा हूँ . इसलिये कुछ मात्रा की गलतियाँ हैँ जो कल ही सुधार पाऊँगा . आप मन ही मन सुधार लेँ . एक दिन उधार दें.)
आजकल कवियों पर शोध करने का फैशन चल निकला है . कोई कवि और कविता को नापने के चक्कर में पड़ा है ..तो कोई कवि की खोली झोली में झाँक रहा है.
कोई कवियों की शैली और कार्यों कि तुलना कर रहा है तो कोई कविता चर्चा में व्यस्त है.एक ओर कविता कोष में २००० पन्ने जोड़े जा चुके है और दूसरी ओर कवि तो कवि ,कविता-पाठकों तक को पुरुस्कार मिल रहे है . यानि पूरा का पूरा माहौल ही ‘कवितामय’ है . घुघुती जी की पड़ोसी ‘कविता’ तो फूले नही समा रही होगी .
अब कविता को नापने के चक्कर में हमारा क्या हाल हुआ था ….ये तो आप जान ही चुके हैं.
” सुबह आप की तरह मैं भी कविता को नापना चाहता था तो मिली नहीं ……. आप ने याद दिलाया और कहा कि पड़ोस वाली कविता को नापो तो उसकी माँ तो नहीं मिली पापा मिल गये ..आप ने कहा था माँ से पूछ लेना पापा का जिक्र तो था नहीं तो हम बिना पूछे नापने लगे. और जो झन्नाटेदार झांपड़ पड़ा कि घूम गये. आप भी ना …क्या क्या सलाह देती हैं…बू हू हू…. ”
कल सदी की महान मँत्र कविता को पढ़ने का भी सौभाग्य मिला . सचमुच मन गदगदा उठा ….. और मन गदा उठाकर भागना ही चाहता था कि उसे समझाया , धमकाया और उसे किसी तरह रास्ते पर लाया .
वैसे कुछ लोग आजकल प्रेरणा लेने के चक्कर मे भी पड़े हैँ … तो हमने सोचा कि हम भी प्रेरणा ले ही लेँ. अब जब खालिस,भावुक और सुन्दर कविता लिखने वाली घुघुती जी इतना अच्छा व्यँग्य लिख सकती हैँ तो अपन कविता मे हाथ क्यों नही आजमा सकते.
तो हमने भी लिख डाली सदी की महान ‘बिना मात्रा वाली’ कविता
चपल मन थम !!
मत मचल,
जतन कर,
हरदम अनबन ,
जखम, कनक-सम,
कसक तम,
चपल मन थम.
चल अचल,
बन मरहम, हरदम,
बन मत, तक्षक
न उगल गरल,
बन, मत-तक्षक,
बस संभल,
रहम कर,
खटर पटर ,
जमघट,
हट !! ,
बम-गरम, हमदम,
मचमच मत कर,
नटखट,
बदल !! ,
सब घर,
न डर,
बरस जलज सम,
कर अरपन,
नयन,चरन पर,
गलत मत कर,
खतम कर,
अब,
सब,
चपल मन थम !!
और कहते कहते मन को थाम ही लिया …. लेकिन इस महान बिना मात्रा की कविता से मन थम तो गया पर मन भरा नहीं . तो सोचा कि क्यों ना सदी की सबसे बरबाद कविता भी लिख डालेँ .
तो लीजिये वो भी हाजिर है .
”
झाँपड़ है, तमाचा है, कँटाप है,
बाबा जी की झोली में साँप है.
लिट्टी है चोखा है,
स्वाद ये अनोखा है. *
मूड़ी है झाल है, **
अंटी में माल है.
धांय किड़ी किड़ी,धांय किड़ी किड़ी, *!
सिगरेट को छोड़ जलाले एक बीड़ी.
घास की ओस,
बेटा है खरगोस,
तिनके वाली दूब,
अब सजेगी खूब.
फ्रीं फ्रां ध्रीग ध्रांग,
भ्रूम भाँ भ्रूम भाँ,
भों भों , काँव काँव,
आ गये अब चुनाव.
शोर है शराब है,
सत्ता का गलियारा है,
मार मत और इसे,
बेचारा दुखियारा है.
पेट में आंत है,
शेरनी के दांत है,
गाँवों की जीत है,
आज सभी मीत हैं.
सटर पटर ,
गटर गटर ,
तड़्क भड़्क,
कहाँ सड़क ?
कौन कड़क !!
मत हड़क ,
मत भड़क .
बाप ने कमाया है ,
बेटे ने लुटाया है .
झूठा है, झूठा है, झूठा है,
लूटा है, लूटा है, लूटा है,
टूटा है, टूटा है, टूटा है
खाया है, खाया है, खाया है,
भाया है, भाया है, भाया है,
माया है, माया है, माया है.
बरबाद कर,
स्वीकार कर,
जुलम कर,
जालिम बन,
अर्थ है, *(धन के अर्थ में)
अनर्थ है,
समर्थ है,
व्यर्थ है.
बिजली है ?
पानी है ?
बिटिया है ,
सयानी है .
खूँ खाँ खूँ खाँ ,
खून खराबा ,
कूँ काँ क़ूँ काँ ,
काके दा ढाबा ,
मान कर,
मानकर,
अपमान कर,
ध्यान कर ,
चल निकल,
सटक तू,
मत अटक तू,
गलहार है,
तैयार है,
आ बैठ ,
कुर्सी पर ,
अब इस सदी की सबसे बरबाद कविता का अर्थ कोई हम से ना पूछे .
अभय जी से पूछ ले.
हम तो चले..
* (ये प्रमोद जी की एक टिप्पणी से लिया है.लिट्टी-चोखा बिहार के प्रमुख व्यंजनो में है)
** (झाल-मूड़ी बंगाल में बहुत प्रसिद्ध है,भेल पूरी या लैया-चना जैसा)
*! (उड़ीसा में बोलचाल में प्रयुक्त होता है)
मई 1, 2007
पिछ्ले हफ्ते मौन थे इसलिये नहीं कि किसी भाई ने धमकाया / समझाया हो कि मौन रहूं बल्कि इसलिये कि रोटी देने वाले ने भेज दिया किसी काम से और हम मजदूर की तरह चल दिये …यानि कि ऑफिस के काम से हमें शहर के बाहर जाना पड़ा . लप्पू-ट्प्पू (लैपटौप) तो साथ था पर मुए विचार थे कि आ ही नहीं रहे थे. लगता है हमारा शब्दज्ञान कुछ कम ही है .क्योकि कल ही पता चला कि शब्दों के बिना विचार नहीं आते. आ तो अब नहीं रहें हैं पर क्या करें मजबूरी है . कुछ ना कुछ तो लिखना ही पड़ेगा …
आजकल पता नहीं लोग शब्दों के पीछे क्यों पड़ गये हैं . कोई “नि:शब्द” दिखा रहा है तो कोई “शब्दों” की महत्ता बतला रहा है . कहा गया ..शब्दों का ज्ञान व्यक्ति के अनुभव की पहचान है . सही बात.. इसीलिये तो अपना देश महान है क्योकि अपने पास तो शब्दों की खान है. अब पुराने कवियों को ही देख लें .हमारे पुराने कवियों ने शब्दों को अनेक अर्थों में प्रयोग किया . एक ही शब्द अलग अलग जगह अलग अलग अर्थ दे जाता है. बचपन में हमें बताया गया शब्दों का ऎसा प्रयोग ‘यमक अलंकार’ भी कहलाता है . जैसे “कनक कनक ते सौ गुनी , मादकता अधिकाय “ … और कहीं पढ़ाया गया “रहिमन पानी राखिये , बिन पानी सब सून “ इसका अर्थ तो तब मालूम ही नहीं था . हम सोचते थे कि रहीम दास जी बता रहे है कि “टॉयलेट में पानी हमेशा रखो , बिना पानी के टॉयलेट का क्या मतलब ‘ अब उस जमाने में नल और टंकी तो होती नहीं थी. पानी रखना पड़ता था . इसीलिये ये बात आयी .
वैसे शब्द केवल कोरे शब्द नही है . शब्द अपने निहित अर्थों में महत्वपूर्ण हैं . शब्दों का चतुर प्रयोग और चतुर अर्थ विश्लेषण शब्दों को नये अर्थों में परिभाषित करता है . अब किसने सोचा था कि ‘तटस्थ’ (तट पर स्थित) रहने वाले ‘समय’ के पीछे हाथ धोकर पड़ जायेंगे . अब आप पूछेंगे कि उन्हें हाथ धोने की आवश्यकता क्यों पड़ी . शायद आपने ध्यान दिया हो उन्होने लिखा था कि “सोचते सोचते हमारी दशा शोचनीय हो गयी” अब शौच के बाद हाथ तो धोएंगे ही ना.
शब्द भले ही अपने अर्थों से महत्वपूर्ण हों पर हमें तो ये शब्द हमेशा कंफ्यूजियाते है. कब किस शब्द का क्या अर्थ होगा समझना थोड़ा कठिन हो जाता है.हमने कभी लिखा था .
“नाग के फन को देखकर , सपेरा अपना सारा फ़न भूल गया , और उस फन गेम में भी फनफनाने लगा ”
यहां फन शब्द तीन अर्थों में प्रयोग में आया है . हिन्दी का फन उर्दू का फ़न और फिर अंग्रेजी का फन .
ऎसी ही एक दिन “ फूल लेकर फूल आया , हमने फूलकर कहा फूल क्यों लाये हो तुम तो खुद ही फूल हो” ( यहां एक फूल हिन्दी का है तो एक अंग्रेजी का )
महाकवि भूषण की यह कविता तो आपको याद होगी ही ना
’ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वाली,
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं
नगन जड़ाती थी , वो नगन जड़ाती हैं
तीन बेर खाती थी, वो तीन बेर खाती हैं’
(इस कविता में युद्ध में हारे हुए राजाऑं कि रानियों कि दशा का वर्णन है . भूषण कहते है कि जो ऊँचे बड़े महलों के अन्दर रहती थी,वह अब ऊँची घोर गुफाओं के अन्दर रहती हैं. पहले जो नगीनों आभूषणों से जड़ी रहती थी , अब को कपड़ों की कमी से नग्न हो सर्दी में ठिठुरती हैं .जो दिन में तीन बार खाती थी, अब वो सिर्फ तीन बेर खाकर जिंदा हैं )
तो ये है शब्दों और उनके अर्थों का चमत्कार . अब कुछ दोहे मेरे भी सुन लें
शब्दों की पड़ताल में , मिले शब्द अनुकूल
‘फूल’ ढूंढने हम चले , खुद ही बन गये ‘फूल’
‘सफर’ कठिन है आजकल , करें ‘सफर’ बिन बात
गरमी तो चिपचिप करे, और घमौरी साथ
‘सोना’ दूभर हो गया , अब सपनों के संग
‘सोना’ चांदी बन गये , जब दहेज के अंग
मन की गहरी ‘पीर’ को , मिले कौन सा ‘पीर’
चादर चढ़े विश्वास की , बेबस है तकदीर
‘आम’ हो गये ‘आम’ अब , ये गरमी का रूप
तरबूजे तर कर गये , निकली जब जब धूप
शब्द रहे सीधे सादे, अर्थ हो गये गूढ़
‘भाव’ बढ़ गये भीड़ के,‘भाव’ ढूंढते मूढ़
जितने जितने शब्द मिले , उससे ज्यादा अर्थ
हम तो बौड़म ही रहे , वो कर गये अनर्थ