कल जब विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ की आज रविवासरीय जनसत्ता में हमारी प्रजाति के बारे में कुछ छप रहा है तो बड़ी खुशी हुई और तब से प्रतीक्षा करने लगे आज के ‘रविवासरीय जनसत्ता’ की . सुबह सुबह जब पेपर वाला आया तो उसे ‘जनसत्ता’ देने के लिये कहा . उसने कहा कि उसके पास कुछ ‘जनसत्ता’ थे लेकिन वो बांट दिये . उससे जब पूछा कि क्या वो एक प्रति ला के दे सकता है तो उसने कहा ….’जनसत्ता’ लोग कम ही पढते हैं इसलिये वो नहीं दे सकता . मैने सोचा कि चलो इंटरनैट पर पढ लेंगे लेकिन काफी ‘गूगलिंग’ करने के बाद भी ढूंढ नही पाया ‘जनसत्ता’ की साइट को .एक साईट मिली भी पर वो शायद ‘जनसत्ता’ की नहीं थी क्योकि उसमें काफी पुराने समाचार थे . यदि आपको पता हो तो बताना.
यहाँ यह बता देने में मुझे कुछ भी शर्म नहीं है कि मैं भले ही हिन्दी भाषा में अपना चिट्ठा लिखता हूँ , भले ही हिन्दी मेरी मातृभाषा है , भले ही मेरे घर में सिर्फ हिन्दी ही बोली जाती है लेकिन मेरे घर में हर दिन जो दो समाचार पत्र आते हैं वो अंग्रेजी भाषा के हैं .रविवार को तीन समाचार पत्र आते हैं लेकिन वो भी अंग्रेजी भाषा के ही हैं. ऎसी बात नहीं है कि मैने कभी हिन्दी समाचार पत्र पढ़ा ही न हो . बचपन में पहले घर में ‘नवभारत टाइम्स’ आता था . जिसमें सबसे पीछे पृष्ठ पर छ्पे ‘शरद जोशी’ जी के व्यंग्य का तो मैं मुरीद था. फिर ‘जनसत्ता’ आने लगा . उस समय प्रभाष जोशी उसके संपादक हुआ करते थे . उस समय संपादकीय पृष्ठ मुझे बहुत पसंद था . प्रो. पुष्पेश पंत के लेख तो मैने काट के संभाल के भी रखे थे. बाद में प्रभाष जोशी का ‘कागद कारे’ बहुत अच्छा लगता था . जहां तक हिन्दी पत्रिकाओं का सवाल है तो ‘धर्मयुग” तो आती ही थी घर में …उसमें ‘कार्टून कोना डब्बू जी’ का इंतजार रहता था. जब अज्ञेय जी ‘दिनमान’ के संपादक थे तो ‘दिनमान’ भी पढ़ता था. फिर ‘कादंबिनी’ भी पढ़ी जिसमें ‘काल चिंतन’ और ‘समस्या पूर्ति ‘ मेरे प्रिय कॉलम थे . जब मैं हॉस्टल में था तो एक ‘वॉल मैगजीन’ निकाला करता था जिसमें ‘काल चिंतन’ की तरह मेरा एक कॉलम होता था ‘काक चिंतन’ .
खैर मैं भी कहां भटक गया . तो जब समाचार पत्र वाले ने मना कर दिया की वह ‘जनसत्ता’ नहीं दे पायेगा तो मैने सोचा चलो कोई बात नहीं बाहर से खुद ले आते हैं . तैयार होकर बाहर निकला और कम से कम दो किलोमीटर चला और 7 दुकानों में पूछा पर कहीं भी ‘जनसत्ता’ नहीं मिला . अब ये तो नहीं मालूम कि ऎसा इसलिये था कि लोग हमारी प्रजाति के बारे में पढ़ने के लिये बहुत बेताब थे और सारे पेपर सुबह सुबह खरीद लिये गये या फिर कोई और वजह थी पर कारण जो भी रहा हो नतीजा यही रहा कि ‘जनसत्ता’ नहीं मिला …. खैर आप लोग स्कैन कर भेजें ताकि हम भी जान पायें अपने बारे में…..वैसे भी लोकतंत्र में ‘जन’ को ‘सत्ता’ मिलना कठिन ही होता है..
अप्रैल 15, 2007 at 12:08 पूर्वाह्न
अरे काकेशजी आपने तो पूरा पोस्ट ही लिख दिया 🙂
आप यहां देखिये ना
http://aaina2.wordpress.com/2007/04/15/jansatta/
अप्रैल 15, 2007 at 6:08 पूर्वाह्न
विडम्बना है कि जो अख़बार अपनी तेजतर्रार लेखनी के लिए जाना जाता हो और जो व्यवस्था के ख़िलाफ़, कट्टरता के ख़िलाफ़, कुरीतियों के खिलाफ़ लिखता आ रहा हो.. वह अब जनता तक नहीं सुलभ नहीं. मीडिया में पसरे पूंजीपति उन सारी आवाज़ों को दबा देते हैं जो विचारधारा के तल पर सामाजिक क्रांति की अलख जगाता है. जनसत्ता का भी यही हश्र किया जा चुका है.
यह तो ‘जनसत्ता’ की दूरदृष्टि है जो नेट पर हो रही हिन्दी क्रांति की पदचाप सुन चुका है और इसे अहम स्थान देने का मन बनाया. मज़े की बात यह है कि कुछ ऐसे भी हैं जो जनसत्ता के इस परिशिष्ट पर फूले नहीं समा रहे कि देखो कितना बड़ा छापा है!! लेकिन वही लोग अंदर के पन्नों में छपा संपादकीय पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं. यानी मीठा मीठा गप गप .. कड़वा कड़वा थू थू. यह दोहरा मापदंड है.
अप्रैल 15, 2007 at 8:29 पूर्वाह्न
जनसत्ता में हमारी प्रजाति के बारे में कुछ छप रहा है
हा हा हा
अप्रैल 15, 2007 at 9:32 पूर्वाह्न
अब तो पढ़ लिया होगा.. 🙂
अप्रैल 15, 2007 at 9:42 पूर्वाह्न
हाँ जी पढ़ लिया अब तो .
अप्रैल 15, 2007 at 1:35 अपराह्न
भईया हमने भी सुबह दो तीन दुकानों पर पता किया लेकिन नहीं मिला। वो तो शुक्र है कि भाटिया जी ने स्कैन की हुई इमेज उपलब्ध करवा दी जिसे पढ़कर कुछ संतोष मिला। उसमें क्लियर पढ़ने में न आ रहा था लेकिन कुछ न होने से कुछ होना अच्छा है।
अप्रैल 17, 2007 at 6:18 पूर्वाह्न
[…] के द्वन्द युद्ध में व्यस्त थे और हम ‘जन’ को ‘सत्ता’ ना मिलने के गम में पीठ किये बिस्तर पर […]
दिसम्बर 12, 2007 at 4:44 पूर्वाह्न
great article.. It is really unfortunate that Jansatta is still not availabe online. I always miss Jansatta and Prabhash Joshi’s weekly column kagad-kare since a long time during my stay in Korea.