अप्रैल 2007
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अप्रैल 22, 2007
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यूं ही
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घुघुती जी का ‘आदेश’ हुआ की आप कौवों को फरमान भेजिये कि वो उनके घर के आस पास जायें क्योकि वो पिछ्ले सात साल से कौवों को घुघुतिया नहीं खिला पा रही हैं. वैसे अब तो घुघुतिया अगले साल आयेगा लेकिन हमने सोचा कि चलो हम तो अपना काम कर ही दें . तो हम जुट गये फरमान की तैयारी करने में . इधर हम फरमान की तैयारी में व्यस्त थे और उधर कुछ घटनायें हो गयी .एक तो मुहल्ले में ‘कुत्तों का आतंक’ फैल गया और उस आतंक को दूर करने की कवायदें शुरु हो गयी . कुछ बोले कि ‘मुहल्ले में गंदगी’ है इसलिये शायद कुत्ते आये हों ( पर हमारा ‘कुत्ता ज्ञान’ कहता है कि गंदगी के कारण कुत्ते नहीं आते वरन कुत्तों के कारण गंदगी आती है ) कुछ ने कहा कि ‘मुहल्ले में किसी ने ऊंची दुकान खोली’ है जहर बेचने की ….शायद इसलिये कुत्ते… पर ये तो कोई बड़ी घटना नहीं है आजकल जगह जगह इस तरह की जहर बेचने वाली दुकानें खुली हैं कुछ खुले आम बेचते हैं कुछ अच्छी पैकेजिंग कर.. और दूसरी घटना ये कि हमारे ही राज्य के कुछ कौवे एक शादी में व्यस्त हो गये इस आशा में कि इतनी बड़ी शादी है तो कुछ ना कुछ जूठन तो मिल ही जायेगी और फिर कुछ दिन आराम से कटेंगे … काम नहीं करना पड़ेगा .. इस चक्कर में कौवों के कई गुट रात रात भर विवाह ‘जलसाघर’ के आगे डेरा डाले ‘प्रतीक्षा’ करते रहे कि शायद कोई डाल दे थोड़ी सी जूठन पर निराशा ही हाथ लगी. … बाद में खबर आयी की पूरी जूठन तो क्या उन्हें तो एक आद जूठन-बाईट भी नहीं मिली.
खैर ये तो वो कारण रहे जिनकी वजह से फरमान भेजने में देरी हुई . अब आप भी सुनिये ये फरमान …
मेरी प्रजा के कौवो ,

वैसे तो आपको मालूम ही होगा कि हमारी संख्या निरंतर कम होते जा रही है . इसमें हमारा दोष नहीं है ये तो एक पर्यावरणीय समस्या है .लेकिन हमारा होना या ना होना उन लोगों को भी कहीं ना कहीं प्रभावित करता ही है जो हमारी इस घटती जनसंख्य़ा के लिये जिम्मेवार हैं . मनुष्य ने बड़ी तादाद में जंगल काटे हैं ऎसे में हमारी जनसंख़्या ही नही वरन अन्य पशु – पक्षियों की जनसंख्या में भी लगातार कमी हो रही है . प्राचीन काल से भारत देश में सभी पशु – पक्षियों को बड़े सम्मान की नजर से देखा जाता था. आपको पंचतंत्र के हमारे पूर्वज लघुपतनक कौवे की याद तो होगी ही .
अब आपको क्या बतायें . कुछ लोग हमें मूरख समझते हैं कहते हैं कि हम कोकिलों की संतानो को पालते हैं . लेकिन उन्हें शायद ये नहीं मालूम कि हमको तो पता रहता ही है कि ये कोयल की ही संतान है वही कोयल.. जो बहुत मीठा बोलती है. कोयल की मीठी बोली के कारण ही अधिकतर लोग कोयल को ज्यादा महत्व देते हैं लेकिन उन्हें क्या मालूम कि जो मीठा बोलता है उसका दिल भी मीठा हो कोई जरूरी तो नहीं . कोयल तो चार दिन की चांदनी है हम तो सदाबहार हैं. हम तो साफ दिल के हैं इसलिये सब कुछ जानने के वावजूद भी पाल लेते हैं उन बच्चों को और फिर बच्चे तो बच्चे होते हैं . हम मूरख नहीं वरन “ अनाथों के नाथ “ हैं.
वैसे पिछ्ले कुछ समय से हमें उस तरह का सम्मान नहीं दिया जाता जो पहले दिया जाता था. हम तो रामायण के काल में थे “कागभुसंडी के रूप में . उस समय तो भगवान कुछ भी देने को तैयार हो गये थे.
‘काकभुसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि’
( हे काकभुशुण्डि ! तू मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर वर माँग. अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ, दूसरी ऋद्धियाँ तथा सम्पूर्ण सुखों की खान मोक्ष )
पर हमने मांगा क्या …सिर्फ भक्ति ….
‘भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम ‘
( हे भक्तों के कल्पवृक्ष ! हे शरणागतके हितकारी ! हे कृपा सागर ! हे सुखधाम श्रीरामजी ! दया करके मुझे अपनी वही भक्ति दीजिये )
ये थी हमारे पूर्वजों की महानता ….और कृष्ण जी के तो हम सखा ही रहे हैं . उनसे तो खिलवाड़ चलता ही था…
‘ काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी ‘
पुरानी बातें और थी.तब हम समाज का एक हिस्सा थे. हमें तो पहले बच्चों को मनाने के लिये भी बुलाया जाता था.
‘करिया कउंआ आजा रे,
बुधवा कउंआ आजा रे ।
जंगाय हे मुन्ना राजा रे,
ए पँवरा ला खाजा रे ॥’
( काले कौए आ जाओ,
विद्वान कौए आ जाओ
मुन्ना राजा नाराज है,
इस ग्रास को खा जाओ )
और मकर संक्रांति पर तो हमारी बहार थी. बागेश्वर ( उत्तराखंड में एक जगह ) में उतरैणी मेला लगता था. घर में तरह तरह के व्यंजन बनाये जाते थे. मीठे आटे से अलग-अलग आकृतियां जैसे घुघुतिया , शकरपारे (खजूरे) , डमरू , तलवार , मेंचुला , दाणिम का फूल आदि बनाकर घी/तेल में तल ली जाती थीं और फिर घुघुती की माला बनाई जाती थी जिसमें बीच में संतरे रहता था और उसके चारों और पूरी , बड़ा ( एक पहाड़ी पकवान) , और सारी आकृतियां लगाकर माला बना दी जाते थी. इसके पीछे तर्क ये है कि संतरा सूर्य का प्रतीक है और बाकी सारी चीजै बाँकी ग्रहों के प्रतीक . ये त्योहार सर्दी के समाप्त होने और गर्मी के आगमन का प्रतीक है . अगले दिन सारे बच्चे और बड़े भी हमें बुलाते हैं और कहते थे.
काले कौवा काले , घुघुती मौवा खाले।
ले कौवा पूरी , मुकु दिजा सुनै-की चूरी ।
ले कौवा बड़ा , मुकु दिजा सुनै-को घड़ा ।
ले कौवा तलवार , मुकु दिजा भॉल भॉल परिवार ।
( काले कौए आ जाओ , घुघुती की माला खा जाओ ,
ले जा कौवा पूड़ी ,मुझे दे जा सोने की चूड़ी
ले जा कौवा बड़ा ,मुझे दे जा सोने का घड़ा
ले जा कौवा तलवार ,मुझे दे जा अच्छा सा परिवार )
और जब कौवा नहीं दिखायी देता तो उसे प्रेम-मिश्रित डाँट भी मिलती थी.
‘ले कौवा मेचुलो , नि आले आज तो तेरा गालड़ थेचुलों’
( आ जा कौवा आजा यार , आज ना आया तो खायेगा मार)
इतनी प्यार से हमें बुलाया जाता था जैसे पंडित को जीमने के लिये बुला रहे हों तब हम आते थे बड़े ही आदर के साथ. आजकल तो लोग इतने व्यस्त हो गये हैं कि इन सभी रीति रिवाजों को बेकार मानने लगे हैं .
हमको तो बुद्धिमान भी खूब माना जाता था . बच्चो को ये कविता पढ़ाई जाती थी.
“तेज धूप से कौवा प्यासा , पानी की थी कहीं ना आशा”
ये कहानी तो मेरे को मेरे नाना ने सुनाई थी. गरमी का मौसम था ….. सभी नदियाँ, तालाब , कुँए सूख गये थे. पानी का नामोनिशान तक ना था. तेज धूप से मुझे बहुत प्यास लग गयी थी , पानी की तलाश में इधर-उधर उड़ता रहा . थक-हार कर एक पेड़ पर जा बैठा तो मुझे एक घड़ा दिखाई दिया . घड़े में पानी बहुत नीचे था और मेरी चोंच पानी तक नहीं पहुँच पा रही थी . मैं आसपास बिखरे पड़े कंकड़-पत्थर चोंच से ला-लाकर घड़े में डालने लगा बस क्या था ! पानी धीरे-धीरे घड़े के मुँह तक आ गया । मैंने पानी पीकर अपनी प्यास बुझायी और उड़ गया .
सुबह-सुबह घर की मुंडेर पर कौए का बोलना शुभ माना जाता है .ऎसा विश्वास है कि यदि कौआ बोले, तो उस दिन परदेश गये किसी अपने का घर आगमन होता है. इसीलिये पहले नायिकाऎं कहती थी.
‘ मोरी अटरिया पे कागा बोले जिया डोले मेरा कोई आ रहा है ’
‘ माई नि माई मुंडेर पे मेरे बोल रहा है कागा ‘
या फिर …..
‘पैजनी गढ़ाई चोंच सोन में मढ़ाइ दैहौं
कर पर लाई पर रुचि सुधिरहौं ।
कहे कवि तोष छिन अटक न लैहौं कवौ
कंचन कटोरे अटा खीर भरि धरिहौं ।
ए रे काग तेरे सगुन संजोग आजु
मेरे पति आवैं तो वचन ते न टरिहौ ।
करती करार तौन पहिले करौंगी सब
अपने पिया को फिरि पाछे अंक भरिहों । ‘
अब कोई सुन्दरी हमारी चोंच सोने मे मढ़ाने को तैयार हो सोने के कटोरे में खीर भर कर रख दे और पति के आने पर पति को छोड़ अपन को अपनी बाँहों में भरने को तैयार हो तो भला कौन नहीं आयेगा .
अमीर खुसरो के जमाने में भी कुछ ऎसा कहा जाता था .
परदेसी बालम धन अकेली , मेरा बिदेसी घर आवना.
बिर का दुख बहुत कठिन है , प्रीतम अब आ जावना.
इस पार जमुना उस पार गंगा , बीच चंदन का पेड़ ना.
इस पेड़ ऊपर कागा बोले , कागा का बचन सुहावना.
तो कौए के वचन को सुहावना बोला जाता था . अब कोई इतनी मान मनुहार करे तो हम क्यों ना आयें भला. आज तो कौए के बोलने को केवल ‘कोरी काँव काँव’ ही माना जाता है.
अब देखिये मैने आपके पक्ष की सारी बातें इस फरमान में रख दी क्योंकि मैं समझ सकता हूँ आपकी परेशानियां पर इस लोकतंत्रीय सत्ता में परेशानियां समझना एक बात है उनका समाधान ढूँढना दूसरी बात.
लेकिन फिर भी मेरा आप लोगों से निवेदन है कि आप इन बातों के बावजूद भी घुघुती जी के घर जायें और उनके दु:ख भरी पैरोडी की लाज रख लें.
आपका राजा — काकेश

अप्रैल 19, 2007
कल अपने क्लिनिक पर बैठे थे तो एक व्यक्ति आये . अब आप कहेंगे कि मैने कभी बताया ही नहीं कि मैं डाक्टर हूँ …हमने तो कल तक आपको ये भी नहीं बताया था कि हम ‘कागाधिराज’ हैं….चलो आपके गिले शिकवे फिर कभी …अभी तो आप कल की बात सुनिये.
जी हाँ मैं डाक्टर हूं और कुत्तों का कुत्ते के काटने का इलाज करता हूँ.कल एक व्यक्ति आये ….
गोल गोल मुंह, छोटे छोटे बाल.. आँखों में फोटो-क्रोमेटिक चश्मा …जो कि थोड़ा भूरा भूरा सा हो गया था … शायद धूप में आये थे. ..गले में गुलाबी रंग का गमछा सा कुछ…आसमानी सी शर्ट या फिर कुर्ता …वो आये और आकर मुस्कुराने लगे.
हम किसी कौवे को गुजरात भेजने के फरमान की तैयारी करने में व्यस्त थे . उसी व्यस्तता के बीच उनको सर उठा के देखा तो लगा कि वो ऎसे मुस्कुरा रहे हैं जैसे कोई समुद्र किनारे फोटो खिचवाने के लिये खड़े हों.हम कुछ बोलने के लिये मुँह खोलें इससे पहले ही वो बोल पड़े….
आज खुश तो बहुत होगे तुम ..!!
क्यों भाई क्या हुआ ?
आजकल बहुत मरीज आ रहे हैं ना तुम्हारे पास….उन्होने व्यंगात्मक लहजे में पूछा.
वैसे पिछ्ले कुछ दिनों से मरीज तो खूब आ रहे थे पर इस ओर ध्यान नहीं गया था… हाँ पर….??
क्या तुम्हें मालूम है कि क्यों आ रहे हैं….???
उन्होने फिर पूछा..नहीं मुझे तो नहीं मालूम …. मैने अज्ञानता जतायी.
तुम्हें नहीं मालूम कि कुछ दिनो से यहां कुछ कुत्तों का आतंक छाया हुआ है..
कुत्तों का आतंक ..??? कैसा आतंक …!!
यहां किसी एक मोहल्ले में आजकल कुछ कुत्तों ने डेरा जमा लिया है और हर आने जाने वाले पर पहले गुर्राते हैं फिर काट लेते हैं . आज तो पता चला है कि उनमे से कुछ कुत्ते पागल भी हो गये हैं.
जरूर हो गये होंगे ..क्योकि अमूमन तो कुत्ता ऎसे काटता नहीं क्योकि कुत्ता तो बहुत वफादार होता है. हमने अपना ‘कुत्ता ज्ञान’ बधारते हुए कहा.
क्या पता अपने मालिक की वफादारी ही कर रहे हों..
मालिक की वफादारी !! यानि कि कोई मालिक भी है इनका !!
वो बोले….अब ये तो पता नहीं पर कुछ लोगों को कहते सुना कि इन कुत्तों का भी कुछ ‘हिडन ऎजेंडा’ है….
लेकिन इसका कुछ तो करना पड़ेगा ना..नहीं तो कहीं यहां रेबीज ना फैल जाये. हमने अपनी डाक्टरी चिंता जतायी…
लेकिन करें तो क्या करें…. वो बोले .
हम मौन रहे ..
वे बोले ऎसे मौन रहोगे तो फिर सारे 365 दिन ही मौन रहना पड़ेगा …. उन्होने चिंतक की तरह उकसाते हुए कहा.
हाँ सो तो है… लेकिन करें तो क्या करें…हम इसी सोच विचार में थे कि सामने से लड़खड़ाते हुए दो आदमी आते दिखायी दिये…दोनों ने एक दूसरे को सहारा दे रखा था… एक को तो हम पहचान गये …वो थे ‘भगत जी’ …जो डाक विभाग में पोस्टमैन थे और चिट्ठा चिट्ठी इधर उधर पहुंचाने का काम करते थे….बहुत बकबक भी करते थे… इसीलिये कुछ लोग उन्हें नारद जी भी कह के बुलाते थे…
आइये भगत जी आइये …ये लड़खड़ाते हुए क्यों आ रहे हैं और ये महाशय कौन हैं…हमने पूछा.
ये हैं मेरे दोस्त इरफान मियां…वे बोले.
आदाब..
आदाब..
दुआ-सलाम के बाद मैने देखा दोनों के पांवों में जख्मों के निशान थे.
अरे ये क्या हुआ आप लोगों को ..कहीं आप दोनो भी मोहल्लों वाले कुत्तों के चक्कर में तो नहीं पड़ गये…
चक्कर में नही साहब चंगुल में कहिये…
लेकिन कैसे..?
अब क्या बतायें साहब ,भगत जी ने बोलना प्रारम्भ किया , आप को तो मालूम है आजकल ये डाक बांटने का काम कितना कठिन होता जा रहा है..
वो तो ठीक है पर ये जख्म…
अरे वही बता रहा हूं साहब .. मैं रोज डाक लेने डाकखाने जाता हूं और इरफ़ान भाई अपनी प्यारी सी बिटिया ‘सारा’ को स्कूल छोड़ने … हम दोनों का समय लगभग एक सा ही होता है. जाने का….
लेकिन पिछ्ले कुछ दिनों से एक मोहल्ले में कुछ कुत्ते आ गये हैं पहले तो बेवजह भौंकते हैं और फिर कुछ बोलो तो काट खाते हैं…. इरफ़ान मियां ने बात को जारी रखते हुए कहा… और ‘सारा’ बिटिया तो और भी डरी हुई है..वो कहती है मैं स्कूल नहीं जाऊंगी ..वहां रास्ते में बहुत कुत्ते हैं…मेरे टीचर (भैन जी) मेरे को अच्छी- अच्छी चिट्ठी घर में ही भेज देंगी और उसी से ही बहुत कुछ सीख जाउंगी….
जैसे नेहरू जी भेजा करते थे चिट्ठी …जेल से …. भगत जी बीच में टपकते हुए बोले.
अरे अभी नेहरू जी को छोड़ो …काम की बात करो…मैं बोला…
हाँ तो उन्ही कुत्तों ने हमें भी जख्मी कर दिया… इरफान मिंया बोले..
मैने दोनो की मरहम पट्टी की ..टिटनैस का एक इंजक्सन दिया .. तब उनकी हालत थोड़ी ठीक हुई..
भगत जी बोले …लेकिन इससे कैसे बचें साहब … आप कब तक इंजक्सन लगाते रहेंगे..कुछ तो सोचना पड़ेगा ही ना…
क्यो ना हम ये कस्बा ही छोड़ दें… इरफ़ान मिय़ां बोले…
कस्बा ही छोड़ दें !! ये भी कोई बात है… भगत जी ने प्रतिकार किया. हम कस्बा तो नहीं बदल सकते . और फिर क्यों बदलें.
क्यों .. क्या बात है..मैने जानना चाहा…
अरे भाई ये कस्बा तो अच्छा ही है .यहां अपने पप्पू के पास होने की पूरी गैरंटी है और एक फायदा और है सुना जाता यहां रहने वालों का पुनर्जन्म स्काट्लैंड में होता है 🙂
ये तो ठीक बात है लेकिन इस कस्बे के मालिक भी कभी कभी जाते हैं ना उन बदनाम कुत्तों वाले मोहल्ले में. इरफ़ान मियाँ बोले..
मालिक!! यानि ..कस्बे का भी कोई मालिक होता है क्या… ? हमने चौंक कर पूछा.
अरे कस्बे के मेयर साहब.. अब मेयर साब तो मालिक ही हुए ना .
हाँ वो तो है… लोकतंत्र में हर चुना हुआ व्यक्ति देश , समाज ,गांव , शहर का मालिक ही होता है. हम बोले
लेकिन कल जब कुछ लोग आपके पास आये थे कैमरा-सैमरा ले के तो उनको भी आप मालिक मालिक ही ना बोल रहे थे. भगत जी ने पूछा.
भईये आजकल तो जिसके पास कैमरा है वो भी मालिक ही है… इरफ़ान मियाँ बोले.
और जिसके पास हथोड़ा है वो … भगत जी ने चुटकी लेने के अंदाज में पूछा.
वो है मालिक का बाप .. हमने गुस्से में कहा ….आप तो काम की बात पर आइये.
हाँ तो मैं कह रहा था कि मेयर साहब कभी उन बदनाम गली मुहल्लों में जाते हैं ना .. इरफ़ान मियाँ ने बात को जारी रखते हुए कहा.
हाँ ..लेकिन वो तो शांतिदूत बनके जाते है ना …भगत जी बोले.
शांति… अरे ये शांति कौन है हमने तो केवल चंपा का ही नाम सुना था इरफ़ान मियाँ ने पूछा .
अरे वो वाली शांति नही मियाँ.. अशांति वाली शांति.
लेकिन जाते तो हैं ना वो भी… इरफ़ान मियाँ बोले
ओ हो… तो उस से क्या होता है… वो फिर लाइन में आ ही जाते है ना .. और फिर कभी कभी तो चलता ही है .. भगत जी समझाते हुए बोले …और हाँ यहां ‘कच्ची कली’ भी देखने को भी मिलती है कभी कभी.
हमने भी सोचा के भगत जी से इस बात पर बहस करना ठीक नहीं इतना बड़ा काम करते हैं… कहीं कल से हमारी चिट्ठी ले जाने से मना कर दें तो.
हमने कहा…लेकिन गुरु जी आप ये बताओ कुत्ते कहाँ है कस्बे में या मोहल्ले में.
कौन कुत्ते .. भगत जी कुत्तों को भूल ‘कच्ची कली’ में खो गये थे .
अरे वही वो भौकने वाले कुत्ते ..मैने उन्हें याद दिलाते हुए कहा.
अच्छा हाँ .. अरे भौकने वाले नही साहब कुछ तो पीछे ही पड़ जाने वाले और कुछ दिनों से लग रहा है कि कुछ पागल वगैरह भी हैं…
हाँ हाँ मालूम है… अच्छा ये बताओ आपका डाकखाना और आपकी बेटी का स्कूल जहां है वहां को जाने के लिये क्या एक ही रास्ता है. क्या..कोई दूसरा रास्ता नहीं है…
मतलब …?
मतलब ये कि क्या आप उस मोहल्ले को और उसके कुत्तों को अवोईड नहीं कर सकते..
अवोईड !!! .. इरफान मियां के लिये ये शायद नया शब्द था.
अरे बच कर निकलना, नजरअंदाज करना.. भगत जी ने समझाते हुए बात जारी रखी..हाँ कर तो सकते हैं पर वो मोहल्ला भी तो हमारे ही समाज का ही अंग है ना….कब तक अवोइड करेंगे .
हाँ वो तो ठीक है पर जब तक वो कुत्ते काटना ना छोड़ दें या सारे कुत्तों को रेबीज की वैकसीन ना लग जाये तब तक आप उस मोहल्ले से ना गुजरें…
हाँ ये बात तो ठीक है… ..इरफान मियां ने कहा….
हाँ ..हम दूसरा रास्ता तो अपना ही सकते हैं ..अपना लेंगे ..थोड़ा लंबा पड़ेगा पर ठीक है….भगत जी ने भी सहमति जतायी..
अब तो मेरी बिटिया भी अब बिना किसी ख़ौफ के स्कूल जा पाएगी…
और मैं भी अपनी डाक टाइमली बाँटुंगा …
मेरे सुझाव पर दोनो सहमत थे…और हमारे चश्मे वाले बंधु गुरुदेव की तरह मुस्कुरा रहे थे…
डिस्क्लेमर : ऊपर लिखा लेख किसी व्यक्ति या उसके किसी भी बुरे करम के बारे में नहीं लिखा गया है. ये काकेश की काँव काँव कल्पना का कमाल है . इस कथा के सब पात्र, स्थान एवं परिस्थितियां सार्वजनिक काल्पनिक है. वास्तविक जीवन (वैसे भी जीवन कभी वास्तविक होता कहाँ है ) से इनका दूर दूर तक कुछ भी लेना देना नहीं है. कोई भी समानता केवल उपयोग संयोग मात्र है. यदि आपको कोई आपत्ति हो तो टिप्पणी के माध्यम से दर्ज करायें. हम वादा करते हैं कि उनको किसी दूसरी पोस्ट में इस्तेमाल कर कोई नई पोस्ट नहीं बनायेंगे.
अप्रैल 17, 2007
Posted by kakesh under
ऊलजलूल
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वैसे तो नाम के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है. शैक्सपियर जी से लेकर श्रीश जी तक ने बहुत कुछ लिखा है…. और हमारे आमिर “कोला” खान जी ने भी इसके बारे में कहा है कि “पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा” तो इसी नाम की बात को लेकर कुछ बात करते हैं.
कल जब लोग कतरनें बटोरें या ना बटोरें के द्वन्द युद्ध में व्यस्त थे और हम ‘जन’ को ‘सत्ता’ ना मिलने के गम में पीठ किये बिस्तर पर पड़े थे… तो थोड़े नाराज और दुखी श्रीश जी से मुलाकात हुई. उन्ही के द्वारा उनके नाम के बारे में जाना. तो एक उत्सुकता हुई अपने नाम के बारे में जानने की .
अब खुद की अकल तो इतनी है नहीं कि कुछ कर पाते …तो फिर बगल के एक ज्ञानी पंडित जी के पास गये…और उनसे पूछा कि कृपा कर हमारे नाम का मतलब बताऎं.
पंडित जी बोले….
यदि काकेश का सन्धि विच्छेद करें तो बनेगा ‘काक’ + ‘ईश’ .
हमने कहा वो तो ठीक है पर इसका अर्थ क्या होगा. वो बोले ‘काक’ यानि ‘कौवा’ और ‘ईश’ यानि ‘राजा’ तो काकेश हुआ ‘कव्वों का राजा….’
कव्वों का राजा ?? …भला ये भी कोई नाम है..
पर फिर सोचा …शायद ठीक ही बोला ‘कव्वों का राजा’ ……आखिर राजा तो है ना और फिर देखिये ना.. ‘यथा नाम: तथा कर्म:’ की तर्ज पर काम भी क्या मिला . कौवे की तरह काँव काँव करने का . इसीलिये तो देखा नही किसी भी विषय पर काँव काँव करने लगते हैं.
अभी तो मजाक कर रहे हैं जनाब पर उस समय बहुत दुखी हो गये थे कि नाम भी रखा तो क्या रखा काकेश !!…कोई और नाम ही रख लेते.
इसी दुख में मुँह लटकाये घर आ रहे थे कि बगल के बसका ( बसंत चाचू) मिल गये.वो पूछे तो उन को पूरी की पूरी राम कहानी सुना डाली .
वो बोले ‘तू तो मूरख है रे बेटा’.
तेरे नाम का सन्धि विच्छेद करें तो बनेगा “काक” + “ऎश” . यानि तेरी किस्मत में तो ऎश ही ऎश है . देख नहीं रहा कितनी ऎश हो रही है. फ्री की हिट्स मिल रही हैं और कॉमेंटस भी. थोड़ा दुख तो दूर हुआ पर कंफ्यूजन बढ़ गया.
अब क्या सही है क्या नहीं ये तो हमें नही मालूम आप लोग ज्यादा समझदार हैं… कृपया बतायें क्या सही है …हम तो ‘काका हाथरसी’ की एक कविता की कुछ पंक्तियां सुना देते हैं.
“
नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और।
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐनकताने।
कह ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर,
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।
मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप,
श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप।
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट पैण्ट में,
ज्ञानचंद छ्ह बार फेल हो गए टैंथ में।
कह ‘काका’ ज्वालाप्रसादजी बिल्कुल ठंडे,
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे।“
अप्रैल 16, 2007
Posted by kakesh under
कविता
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प्यार की निष्ठाओं पर उठते सवालों के बीच रहता हूँ इस घर में
शब्द ,जब मौन की धरातल पर सर पटक चुप हो जायें
आस्था, जब विडम्बना की देहली पर दस्तक देने लगे
गीली आँखों के कोने में कोई दर्द , बेलगाम पसरा हो
तनहाइयां ,जब चीख के बोलना भूल जायें
आसमान ,अपनी स्वतंत्रता के अहसास को कोसने लगे
बर्बादियों से रिश्ता कायम करना आसान हो जाये
अंगुलियाँ , तेरे चेहरे से जुल्फ हटाने में भी कांपने लगे
समझा पाओ तो समझाना
कि क्यों
रिश्ते की बुनियाद पर खड़ा महल
आज खंडहर बनने को बैचेन है
प्यार अब ताकता है सिर्फ दीवाल
और पसर कर सो जाते हैं हम
फिर उसी बिस्तर पर
एक दूसरे की ओर पीठ किये
काकेश – 16.04.2007
अप्रैल 14, 2007
Posted by kakesh under
ऊलजलूल
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कल जब विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ की आज रविवासरीय जनसत्ता में हमारी प्रजाति के बारे में कुछ छप रहा है तो बड़ी खुशी हुई और तब से प्रतीक्षा करने लगे आज के ‘रविवासरीय जनसत्ता’ की . सुबह सुबह जब पेपर वाला आया तो उसे ‘जनसत्ता’ देने के लिये कहा . उसने कहा कि उसके पास कुछ ‘जनसत्ता’ थे लेकिन वो बांट दिये . उससे जब पूछा कि क्या वो एक प्रति ला के दे सकता है तो उसने कहा ….’जनसत्ता’ लोग कम ही पढते हैं इसलिये वो नहीं दे सकता . मैने सोचा कि चलो इंटरनैट पर पढ लेंगे लेकिन काफी ‘गूगलिंग’ करने के बाद भी ढूंढ नही पाया ‘जनसत्ता’ की साइट को .एक साईट मिली भी पर वो शायद ‘जनसत्ता’ की नहीं थी क्योकि उसमें काफी पुराने समाचार थे . यदि आपको पता हो तो बताना.
यहाँ यह बता देने में मुझे कुछ भी शर्म नहीं है कि मैं भले ही हिन्दी भाषा में अपना चिट्ठा लिखता हूँ , भले ही हिन्दी मेरी मातृभाषा है , भले ही मेरे घर में सिर्फ हिन्दी ही बोली जाती है लेकिन मेरे घर में हर दिन जो दो समाचार पत्र आते हैं वो अंग्रेजी भाषा के हैं .रविवार को तीन समाचार पत्र आते हैं लेकिन वो भी अंग्रेजी भाषा के ही हैं. ऎसी बात नहीं है कि मैने कभी हिन्दी समाचार पत्र पढ़ा ही न हो . बचपन में पहले घर में ‘नवभारत टाइम्स’ आता था . जिसमें सबसे पीछे पृष्ठ पर छ्पे ‘शरद जोशी’ जी के व्यंग्य का तो मैं मुरीद था. फिर ‘जनसत्ता’ आने लगा . उस समय प्रभाष जोशी उसके संपादक हुआ करते थे . उस समय संपादकीय पृष्ठ मुझे बहुत पसंद था . प्रो. पुष्पेश पंत के लेख तो मैने काट के संभाल के भी रखे थे. बाद में प्रभाष जोशी का ‘कागद कारे’ बहुत अच्छा लगता था . जहां तक हिन्दी पत्रिकाओं का सवाल है तो ‘धर्मयुग” तो आती ही थी घर में …उसमें ‘कार्टून कोना डब्बू जी’ का इंतजार रहता था. जब अज्ञेय जी ‘दिनमान’ के संपादक थे तो ‘दिनमान’ भी पढ़ता था. फिर ‘कादंबिनी’ भी पढ़ी जिसमें ‘काल चिंतन’ और ‘समस्या पूर्ति ‘ मेरे प्रिय कॉलम थे . जब मैं हॉस्टल में था तो एक ‘वॉल मैगजीन’ निकाला करता था जिसमें ‘काल चिंतन’ की तरह मेरा एक कॉलम होता था ‘काक चिंतन’ .
खैर मैं भी कहां भटक गया . तो जब समाचार पत्र वाले ने मना कर दिया की वह ‘जनसत्ता’ नहीं दे पायेगा तो मैने सोचा चलो कोई बात नहीं बाहर से खुद ले आते हैं . तैयार होकर बाहर निकला और कम से कम दो किलोमीटर चला और 7 दुकानों में पूछा पर कहीं भी ‘जनसत्ता’ नहीं मिला . अब ये तो नहीं मालूम कि ऎसा इसलिये था कि लोग हमारी प्रजाति के बारे में पढ़ने के लिये बहुत बेताब थे और सारे पेपर सुबह सुबह खरीद लिये गये या फिर कोई और वजह थी पर कारण जो भी रहा हो नतीजा यही रहा कि ‘जनसत्ता’ नहीं मिला …. खैर आप लोग स्कैन कर भेजें ताकि हम भी जान पायें अपने बारे में…..वैसे भी लोकतंत्र में ‘जन’ को ‘सत्ता’ मिलना कठिन ही होता है..
अप्रैल 12, 2007
Posted by kakesh under
बहस
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वैसे तो मुझे खुशी होनी चाहिये थी कि कल ढेर सारी हिट्स भी मिले और टिप्पणीयां भी ….पर ना जाने क्यों उतनी खुशी नहीं हुई .क्योंकि जिस सवाल को लेकर प्रतिकार प्रारम्भ हुआ था वो सवाल तो बना ही रहा बल्कि उस सवाल के जबाब तलाशने की जद्दोजहद में कुछ नये सवाल बनते चले गये . हाँलाकि य़ोगेश जी ने कहा “ बहुत खूब अंदाज में आपने विषय को समाप्त करने के लिये अंतिम भाषण जैसा दे डाला है. मैं समझता हूं कि आपकी इस पोस्ट में इतना दम है कि अब इसे पढने के बाद बेनामी विषय पर कोई पोस्ट नहीं लिखी जानी चाहिये. ” . ये तो मैं नही जानता कि पोस्ट में कितना दम था या है पर कुछ नये और पुराने सवालों पर मेरा स्पष्टीकरण मुझे आवश्यक जान पड़ता है . पहले तो मैं चाहता था कि एक टिप्पणी कर दूं पर जब देखा कि कल टिप्पणीयां भी पोस्ट जितनी बड़ी हो गयी तो दिमाग में आया कि चलो एक पोस्ट ही लिखी जाय . वैसे मेरा मानना है कि अनाम,बेनाम पर बहस काफी लंबी हो गयी है और इसको आगे नहीं खींचना चाहिये पर यह बहस केवल एक अनाम व्यक्ति पर नहीं बल्कि उसके बहाने चिट्ठाजगत के मुद्दों पर भी है .
यहां मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मेरी कल वाली पोस्ट किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं थी. मैं तो किसी ‘असभ्यता’ का सभ्य तरीके से प्रतिकार कर रहा था.
जब इतनी अच्छी अच्छी टिप्पणीयां आई हैं तो उन्हें बरबाद क्यों जाने दें .थोड़ा सा विश्लेषण कर लिया जाय वैसे भी ‘ई-स्वामी जी’ ने ‘चने की झाड़’ पर चढ़ा ही दिया है यह कहके कि आपके “लेखन में निरपेक्ष विश्लेषण और वैचारिक स्पष्टता” है और कुछ सुधी जनों ने उसका समर्थन भी कर दिया है “मैं भी स्वामीजी की बात से सहमत हूँ।“ कह के 🙂 . ये शब्द आपको ‘व्यर्थ के गुमान में रह कर अपने आपको बड़ा समझना’ नहीं सिखाते वरन आपके ऊपर एक अतिरिक्त जिम्मेवारी डाल देते हैं …. अपेक्षाओं पर खरे उतरने की. धन्यवाद आप सभी का.
चलें टिप्पणीयों के माध्यम से मूल समस्या को समझें और एक आम सहमति सी बनाने का प्रयास करें . सही समस्या की पहचान सही समाधान की पहली सीढ़ी है . यदि हम सही समस्या को पहचान पाएंगे तो समस्या का समाधान भी सहज ही हो जायेगा. अभी जो बात सामने आ रही है कि ये मुद्दा अनाम या बेनाम का नहीं बल्कि टिप्पणीयों में असभ्य भाषा के इस्तेमाल का है .
देखिये कुछ उदाहरण …
“बात गंदी भाषा के असभ्यता पूर्वक इस्तेमाल को लेकर ज्यादा है.”
“बेनामी टिप्पणीयो से कोई परेशानी तब तक नही है जब तक वह सभ्य भाषा मे हो !”
“यदि टिप्पणी की भाषा ठीक है तो भी बेनाम को क्यों कोसे जा रहे हैं।“
“एक इंसान को किसी दूसरे इंसान से जिस न्यूनतम तमीज की अपेक्षा होती है, कम से कम उतनी तमीज तो हम आपस में संवाद करते समय अपनी भाषा में दिखा ही सकते हैं। “
“ग़ुमनामी की आड़ से गाली गलौज.. अति-स्वतंत्र समाज में भी मर्यादायें तो होंगी..मामला उसी सीमा का है..
“मैंने सेठ होशंगाबादी के ब्लॉयग पर देखा था कि एक बेनाम ने जमकर xxxx गालियां दे मारी…… मेरे खिलाफ सही बात बोलिए जिसे बोलना है . मैं नहीं परेशान होता अपनी निंदा से .
“ परेशानी बेनाम से नहीं उसकी आजादी से है।अनजान की आलोचना, बुराई या गाली कोई बर्दाश्त कैसे करेगा?”
तो इतना तो जाहिर ही है कि अनाम की आड़ में हम जूझ रहे हैं किसी दूसरी समस्या से, किसी दूसरे प्रश्न से. यदि हम सही प्रश्न पर विचार करेंगे तो शायद सही हल ढूंढ भी पायेंगे. ये सभी बाते सही हैं और चिंता का विषय भी.
किसी ने कहा है कि अंधेरे को कोसने से बेहतर है एक दीप जलाना . ‘अनाम’ को गरियाना अंधेरे को कोसने जैसा है .’अनाम’ अजेय है. हम ‘अनाम’ से नहीं जीत सकते . ‘अनाम’ तो रक्तबीज है . ‘अनाम’ अमर है . ‘अनाम’ एक साश्वत सत्य है . ‘अनाम’ सर्वव्यापी है .’अनाम’ बहुरूपिया है . इससे पहले भी ‘अनाम’ था ….कई रूपों में ….अभी भी है और आगे भी रहेगा . रूप बदल सकते हैं सन्दर्भ बदल सकते है पर ‘अनाम’ नहीं बदलेगा . वो तो हमारी पहचान का एक हिस्सा है . हम सब किसी ना किसी रूप में ‘अनाम’ हैं . और यही हमारा उदगम (स्टार्टिंग पौइंट ) है. हमारी यात्रा ‘अनाम’ से नामवर बनने की यात्रा है . ‘अनाम’ को कोसना कीचड़ में पत्थर मारने जैसा है . ‘अनाम’ को लतियाना , गरियाना हवा में डंडा चलाने जैसा है . आओ ‘अनाम’ के अस्तित्व को स्वीकारें.
तो हमारी लड़ाई उस ‘अनाम’ से नहीं वरन उस असभ्य भाषा से है जो हमें परेशान करती है . य़े सही बात है .पिछ्ली पोस्ट में मेरा भी यही कहना था कि हमें कॉंनटेन्ट के बारे में सोचना है ना कि कॉंनटेन्ट राइटर के. हमें अपना मोर्चा असभ्यता के विरुद्ध खोलना होगा ना कि गुमनामियत के विरुद्ध . असभ्यता का दायरा विस्तीर्ण है ये केवल टिप्पणीयों तक ही सीमित नहीं है . ये आपके चिट्ठे पर भी उतना ही लागू होता है जितना मेरी टिप्पणी पर. लेकिन हम क्या कर रहे हैं .. टिप्पणीयों से गंद हटाने के लिये अपने चिट्ठे पर गंद भर रहे हैं. असभ्यता के विरोध मे बोलने की बजाय हम खुद असभ्यता का परिचय दे रहे हैं . मेरा प्रतिकार इसी बात पर था और है. किसी ने कल लिखा था
“कल को कोई अपनी एक पहचान लेकर गाली गलौज करने लगे तो भी आप प्रकाशित तो नहीं कर देंगे..” सही बात है …यही तो कर रहे है हम ‘अपनी एक पहचान लेकर गाली गलौज “ . ये बात महत्वपूर्ण नहीं कि ‘किसने लिखा’ बल्कि ये कि ‘क्या लिखा’…..
कैसे हम इस कथित असभ्यता को निकाल बाहर करें ये एक बहुत बड़ा सवाल है . असभ्यता का कोई मानक , युनिवर्सल स्टैंडर्ड नहीं है . जो बात मुझे असभ्य सी लगती है वो आपको सभ्य लग सकती है. और इसका विपरीत भी सही है . अब चूंकि समस्या युनिवर्सल नहीं है तो एक युनिवर्सल समाधान भी मुश्किल है . तो इसमें हमें अपने विवेक से काम लेना होगा. हमारी असभ्यता का निर्धारण हम करेंगे . टिप्पणी-मॉडरेशन असभ्यता-निर्धारण में सहायता करने वाला औजार है . इस औजार का प्रयोग करें और अपने विवेक से निर्धारित करें कि आप क्या रखना चाहते हैं क्या हटाना . जहाँ तक बात चिट्ठों में असभ्यता निर्धारण की है तो उसमे भी हम बहुत कुछ कर सकते है प्रत्यक्ष रूप से नहीं पर परोक्ष रूप से . हम पाठक हैं… हम चुन सकते हैं कि क्या पढ़ें क्या नही .ये अधिकार हमारा है और यदि कोई असभ्य बात आपको लगी किसी चिट्ठे पर तो उसका सभ्य भाषा में प्रतिकार भी कर सकते हैं….
आपको ऎसा नहीं लगता कि ज्ञान कुछ ज्यादा ही हो गया .. मुझे तो ऎसे ही लगता है ..अब सुबह सुबह 4 बजे उठकर मुँह हाथ धोकर , चाय पीने की बजाय कोई चिट्ठा लिखने बैठ जाये तो उससे क्या उम्मीद करें … और फिर चने की झाड़ पर चढ़ाया है तो इतना तो झेलना ही पड़ेगा ना… पर योगेश जी अब निश्चिंत रहें अब ‘बेनामी’ पर नहीं लिखुंगा ….हाँ ‘सूनामी’ पर लिख सकता हूं 🙂
अप्रैल 11, 2007
आज मैं बैचेन हूँ.. इसलिये नहीं की मेरी पिछली पोस्ट “निश:ब्द” की तरह पिट गयी.. इसलिये भी नहीं कि मुझे फिर से “नराई” लगने लगी … इसलिये भी नहीं कि मुझे किसी ‘कस्बे’ या ‘मौहल्ले’ में किसी ने हड़का दिया हो .. इसलिये भी नहीं कि मेरा किसी ‘पंगेबाज’ से पंगा हो गया हो .बल्कि इसलिये कि मुझे ‘नाम’ की चाह ना रखने वाले अनामों ,बेनामों का गालियां सुनना अच्छा नहीं लग रहा .
मैं एक चिट्ठाकार हूँ …क्या मुझे चिंतित होना चाहिये कि मेरा अस्तित्व खतरे में है . क्या मेरा लेखन किसी की टिप्पणी के कारण ही अच्छा या बुरा हो सकता है. मुझे ‘आत्मावलोकन’ करना चाहिये (!! ?? ) …क्योकि ‘मैं’ ये निर्धारित करना चाहता हूं कि किसी और के चिट्ठे पर बेनामी टिप्पणी ना हो …. आप अपने चिट्ठे पर बेनामी चिप्पी नहीं चाहते तो उस के लिये आपके पास तकनीकी समाधान है …बन्द कर दीजिये ‘एनोनिमस पोस्टिंग’ …पर हम यह नहीं चाहते क्योकि इस से तो मेरी चिप्पियां कम हो जायेंगी और मैं , टी आर पी की दौड़ में नही आ पाऊंगा या फिसड्डी रह जाऊंगा … टी आर पी रेटिंग लोकप्रियता से निर्धारित होती है और लोकप्रियता टिप्पणीयों से . मैं ‘अप्रगतिशील’ साहित्यकार बन सकता हूँ.. ‘अलोकप्रिय’ नहीं .
हम क्यों चाहते हैं ‘नाम युक्त टिप्पणी’.. क्योंकि हम नाम देखकर निर्धारित करेंगे कि उस टिप्पणी को किस खाँचे में फिट करना है … कैसा बरताव करना है उसके साथ… मैने पिछ्ली पोस्ट में भी कहा था हमारे यहाँ खाँचा बनाने कि प्रक्रिया नाम से शुरु हो जाती .य़े एक बुनियादी सवाल है …हमें इस पर चिट्ठाकारिता के इतर भी विचार करना है . क्यों हम कही हुई ‘बात पर ना जाकर जात पर’ ( नाम पर ) जाते हैं . क्यों मेरी कही हुई ठीक वही बात अलग अलग नामों से अलग अलग अर्थ दे जाती है .
हम अनाम-बेनाम-गुमनाम के चंगुल में क्यों फ़ँस जाते है . यदि में अपना नाम अनाम की जगह अनामदास रख लूं तो ठीक है लेकिन मैं अनाम नहीं रह सकता..ऎसा क्यों …??
किसी ने कहा कि ‘बेनाम लिखने वाला कायर है’ . मैं कहता हूं ‘बेनाम लिखने वाला सभ्य है’ . वो आपकी इज्जत कर रहा है . वो आपके खिलाफ बुरे विचार ,आपकी बात की खिलाफत सीधे मुंह पर नहीं कर रहा . वो आपसे वार्तालाप का एक नया माध्यम तलाश रहा है . इसमें तकनीक भी उसका साथ दे रही है फिर आपको क्या समस्या है ?…. आपके लिये क्या महत्वपूर्ण है वार्तालाप या व्यक्ति .यदि आप कहें ‘वार्तालाप’ .. तो नाम पर क्यों जाते है वो अनाम हो या अनामदास क्या अंतर पड़ता है और यदि आप कहें नहीं ‘नाम’ ज्यादा महत्वपूर्ण है तो बन्द कर दो ना ‘एनोनिमस पोस्टिंग’ .क्यों बेचारों को गरियाकर अपनी सभ्यता का परिचय दे रहे हो .
बेनाम लिखने वाला कायर नहीं है वो आप जैसे छद्मनामधारी लोगों से ज्यादा साहसी है . कितने ऎसे लोग होंगे जो किसी चिट्ठे को पढ़कर मन ही मन कुलबुलाते रहते होंगे … बहुत कुछ कहने को ….पर सामने वाले को नाराज न कर बैठें इस आशंका से मन मसोसकर रह जाते होंगे. जैसे कभी कभी आपको अपने पिताजी या बड़े भाई की बात अच्छी नहीं लगती तो आप सामने कुछ नहीं कहते पर मन ही मन कहीं कोई दरार पाल लेते हैं. बेनाम व्यक्ति साहस तो करता है अपनी बात को रखने का . मुझे लगता है हमारी पीड़ा का कारण बेनाम व्यक्ति नहीं वरन उसकी कही हुई कड़वी ( सच्ची ) बातों को हजम नहीं कर पाना है . आप मेरे को ईमानदारी से जबाब दीजिये यदि यही बेनाम व्यक्ति आप की ढेर सारी (झूठी) तारीफें करता , जैसा कि कई नामधारी व्यक्ति करते हैं , तो भी क्या उसे मारने दौड़े चले आते . तब तो आप इंटरनैट के अनाम चरित्र को सादर प्रणाम करते . उसकी प्रसंशा में कसीदे गढ़ते .
पिछली पोस्ट में भी मैने इसी प्रश्न को रखने का प्रयास किया था कि हम लोगों को किसी भी खांचे में फिट करने की बजाय उसके लेखन को खाँचों में फिट कीजिए . तकनीक आप को सहायता देती है .आप अपने लेखों को श्रेणीबद्ध करते है .ठीक इसी प्रकार आप दूसरे चिट्ठों को भी श्रेणी बद्ध करें और अपनी रुचि के अनुसार पढ़ें . हमारा ध्यान विषयवस्तु पर ज्यादा हो सन्दर्भ पर कम . कॉंनटेन्ट कॉनटैक्सट से ज्यादा महत्वपूर्ण है.
मैं क्यों लिखता हूँ… टिप्पणी के लिये या स्वात: सुखाय के लिये … यदि मैं कहूं कि मैं केवल स्वात: सुखाय के लिये लिखता हूँ तो ये तत्वविहीन कोरा आदर्श होगा. मेरे लिये टिप्पणी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि एक फिल्म के लिये दर्शक . सिनेमाहॉल मालिक के लिये भी दर्शक ही महत्वपूर्ण है तो फिर यदि दर्शक ही महत्वपूर्ण है तो हम दर्शक के पहनावे पर क्यों ध्यान दें … .आप कहेंगे मेरा हॉल है मैं निर्धारित करुंगा कि कौन मेरे हॉल में फिल्म देखे कौन नहीं …मैं किसी भी तरह का ड्रेस कोड बना सकता हूं …. बनाईये ना आप …. दरवाजे पर सिक्यूरिटी गार्ड लगाइये . बड़े बड़े अक्षरों में लिख दीजिये कि कौन सा ड्रेस कोड अलाऊड है लेकिन ये मत कीजिये कि आप दर्शक को अंदर आने का टिकट भी दे दें और वो जब फिल्म देख रहा हो तो आप उसे गरियाने लगें … खुद ‘लुंगी’ पहनें.. ड्रेस कोड ‘सूट विद बूट’ का निर्धारित करें और बेचारे ‘कुर्ता पायजामा पहने’ दर्शक को ..जो टिकट ले के अंदर घुसा है उसे बाहर निकालने की पहल करें.
चलो बहुत निकाल ली अपनी भड़ास अब आपको काम की बात बताता हूँ.
अब आप भी इस ‘बेनामी सूनामी’ से बचना चाहते हो तकनीकी रास्ता मैं बता सकता हूं . माफ कीजिये मैं तकनीकी व्यक्ति हूं इसलिये तकनीकी सुझाव ही दे सकता हूं गरियाने की कला में ,मैं माहिर नहीं.
1.आप अपने चिट्ठे पर ‘एनोनिमस पोस्टिंग’ बन्द कर दें .
2.यदि आप चाहते हैं ..कि नहीं आप सब को आने देना चाहते लेकिन चन्द लोगों की ( इसमें अनाम-बेनाम-गुमनाम-नामवर-छ्द्मनामधारी सभी हो सकते हैं ) बातों को सार्वजनिक नहीं करना चाहते तो अपने चिट्ठे पर टिप्पणीयों पर मॉडरेशन लगा दें
बेनामों के लिये सुझाव
1.भाई मेरे… क्यों गाली खा रहे हो वो भी बिना मतलब की. अरे एक आई-डी की छतरी ले ही लो ना . फ्री में मिलती है यार… और नाम चाहे कुछ भी रख लो … कोई फोटो प्रूफ थोड़े मांग रहा है . आपको नाम नहीं सूझ रहा तो मैं कुछ सहायता कर सकता हूं.
आप अनाम-बेनाम-गुमनाम नहीं हो सकते लेकिन आप चाहें तो अनामचंद , बेनामदास या गुमनाम कुमार रख सकते हो . आजकल बाजों का भी बहुत महत्व है ( बहुत दूर दूर की देख लेते हैं ) तो आप चालबाज , तिकड़मबाज , दंगेबाज रख सकते हैं . यदि कोई नया सा नाम रखना हो तो फिर फंटूस , कवि कानपुरी , निंदक , चिंतक जैसे नाम रख लें . वैसे एक राज की बात बताऊं आप अपना नाम कोई स्त्रीलिंग में रख सकें तो बहुत अच्छा . इससे एक तो आपको पप्पी चिप्पी लगाने वाले ज्यादा मिलेंगे और फिर कोई आपको इस तरह से गरियाएगा भी नहीं . जी हां सही बात है . कल के गाली समारोह में सुना नही .. .. हमारे ‘बेनाम साहब’ , ‘हलवाई की लौंडिया’ से नयन-मटक्का करते पकड़े गये थे तो वो पुरुष ही थे ना .. ओ क्या कहा ..नहीं भी हो सकते ..लगता है आपने भी ‘फायर’ फिल्म देख रखी है ..लेकिन जनाब दिवाल गीली करने वाले तो पुरुष ही होंगे ना . जमीन गीली होती तो हम कुछ और सोचते … . हाँ तो मैं आपको नाम बता रहा था.
आप ‘भैनजी’ रख सकते हैं … इससे एक तो आपको य़ू.पी. के चुनावों में कुछ माइलेज मिल जायेगा और फिर आप मासूम से सवाल भी उठा सकती है …“ नेता क्यूं बने अभिनेता “ टाइप …. आप वर्ड्पैड भी रख सकती है इससे आपकी छवि महिलाधिकारों के लिये जागरूक स्वयं सुखी पर दूसरों को दुखी करने देखने वाली महिला की बन जायेगी. यदि आप कोई शोध छात्रा की छवि चाहें तो आप ‘चित्रित मन’ रख लें …. किसने बोला है आपको सही नाम बताने को … बस ‘नामवर’ चाहिये ‘बेनाम’ नहीं चलेगा.
अप्रैल 10, 2007
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नराई
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कल लिखना तो चाहता था अपनी “नराई” के बारे में पर लिखते लिखते चिट्ठाजगत पर लिखने बैठ गया. कारण शायद ये रहा कि मुझे भी लगा यदि मैं किसी विषय विशेष पर लिखुं तो मैं भी किसी खांचे में ढाल दिया जाऊंगा और लोग भी वही करेंगे जो आम तौर पर अन्य चिट्ठों के लिये करते हैं यानि चयनित पठन ( सलेक्टिव रीडिंग ) वैसे तो उम्मीद से ज्यादा ही टिप्पणीयां आयीं जिससे ये मन हुआ कि इसी विषय पर और कुछ लिखा जाये पर अभी वापस लौटते हैं “नराई” पर नहीं तो लोग कहेंगे कि “नराई” के बहाने मैं भी “बकरी और बिल्ली” को गुरु बनाने में तुला हुआ हूँ 🙂
मेरा पहाड़ से क्या रिश्ता है ये बताना मैं आवश्यक नहीं मानता पर पहाड़ मेरे लिये ना तो प्रकृति को रोमांटिसाईज करके एक बड़ा सा कोलार्ज बनाने की पहल है ना ही पर्यावरणीय और पहाड़ की समस्या पर बिना कुछ किये धरे मोटे मोटे आँसू बहाने का निठल्ला चिंतन ( तरुण जी इसे अन्यथा ना ले लें ये आपके लिये नहीं है ). ना ही पहाड़ मेरा अपराधबोध है ना ही मेरा सौन्दर्यबोध. मेरे लिये पहाड़ माँ का आंचल है ,मिट्टी की सौंधी महक है , ‘हिसालू’ के टूटे मनके है , ‘काफल’ को नमक-तेल में मिला कर बना स्वादिष्ट पदार्थ है , ‘क़िलमोड़ी’ और ‘घिंघारू’ के स्वादिष्ट जंगली फल हैं , ‘भट’ की ‘चुणकाणी’ है , ‘घौत’ की दाल है , मूली-दही डाल के ‘साना हुआ नीबू’ है , ‘बेड़ू पाको बारामासा’ है , ‘मडुवे’ की रोटी है ,’मादिरे’ का भात है , ‘घट’ का पिसा हुआ आटा है ,’ढिटालू’ की बंदूक है , ‘पालक का कापा’ है , ‘दाणिम की चटनी’ है क्या क्या कहूँ …लिखने बैठूं तो सारा चिट्ठा यूँ ही भर जायेगा. मैं पहाड़ को किसी कवि की आँखों से नयी-नवेली दुल्हन की तरह भी देखता हूं जहां चीड़ और देवदारु के वनों के बीच सर सर सरकती हुई हवा कानों में फुसफुसाकर ना जाने क्या कह जाती है और एक चिंतित और संवेदनशील व्यक्ति की तरह भी जो जन ,जंगल ,जमीन की लड़ाई के लिये देह को ढाल बनाकर लड़ रहा है . लेकिन मैं नहीं देख पाता हूँ पहाड़ को तो.. डिजिटल कैमरा लटकाये पर्यटक की भाँति जो हर खूबसूरत दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर अपने दोस्तों के साथ बांटने पर अपने की तीस-मारखां समझने लगता है.
पहाड़ ,शिव की जटा से निकली हुई गंगा है .कालिदास का अट्टाहास है .पहाड़ सत्य का प्रतीक है .जीवन का साश्वत सत्य है . कठिन परिस्थितियों में भी हँस हँस कर जीने की कला सिखाने वाली पाठशाला है. गाड़, गध्यारों और नौले का शीतल , निर्मल जल है .तिमिल के पेड़ की छांह है , बांज और बुरांस का जंगल है . आदमखोर लकड़बग्घों की कर्मभूमि है . मिट्टी में लिपटे ,सिंगाणे के लिपोड़े को कमीज की बांह से पोछ्ते नौनिहालों की क्रीड़ा-स्थली है . मोव (गोबर) की डलिया को सर में ले जाती महिला की दिनचर्या है . पिरूल सारती ,ऊंचे ऊंचे भ्योलों में घास काटती औरत का जीवन है . 
कैसे भूल सकता है कोई ऎसे पहाड़ को .पहाड़ तूने ही तो दी थी मुझे कठोर होकर जीवन की आपाधापियों से लड़ने की शिक्षा . कैसे भूल सकता हूँ मैं असोज के महीने में सिर पर घास के गट्ठर का ढोना ,असोज में बारिश की तनिक आशंका से सूखी घास को सार के फटाफट लूटे का बनाना, फटी एड़ियों को किसी क्रैक क्रीम से नहीं बल्कि तेल की बत्ती से डामना फिर वैसलीन नहीं बल्कि मोम-तेल से उन चीरों को भरना , लीसे के छिलुके से सुबह सुबह चूल्हे का जलाना , जाड़े के दिनों में सगड़ में गुपटाले लगा के आग का तापना , “भड्डू” में पकी दाल के निराले स्वाद को पहचानना. तू शिकायत कर सकता है पहाड़ ..कि भाग गया मैं , प्रवासी हो गया , भूल गया मैं ….लेकिन तुझे क्या मालूम अभी भी मुझे इच्छा होती है “गरमपानी” के आलू के गुटके और रायता खाने की .अभी भी होली में सुनता हूँ ‘तारी मास्साब’ की वो होली वाली कैसेट …अभी भी दशहरे में याद आते है “सीता का स्वय़ंबर” , “अंगद रावण संवाद”, “लक्ष्मण की शक्ति” . अभी भी ढूंढता हूँ ऎपण से सजे दरवाजे और घर के मन्दिर .अभी भी त्योहार में बनते हैं घर में पुए , सिंघल और बड़े. कहाँ भूल पाऊंगा मैं वो “बाल मिठाई” और “सिंघोड़ी” , मामू की दुकान के छोले और जग्गन की कैंटीन के बिस्कुट .
तेरे को लगता होगा ना कि मैं भी पारखाऊ के बड़बाज्यू की तरह गप मारने लगा लेकिन सच कहता हूं यार अभी भी जन्यू –पून्यू में जनेऊ बदलता हूं , चैत में “भिटोली” भेजता हूं , घुघुतिया ऊतरैणी में विशेष रूप से नहाता हूं ( हाँ काले कव्वा ,काले कव्वा कहने में शरम आती है ,झूठ क्यूं बोलूं ) , तेरी बोजी मुझे पिछोड़े और नथ में ही ज्यादा अच्छी लगती है .मंगल कार्यों में यहाँ परदेश में “शकुनाखर” तो नहीं होता पर जोशी ज्यू को बुला कर दक्षिणा दे ही देता हूं .
तू तो मेरा दगड़िया रहा ठहरा.. अब तेरे को ना बोलूं तो किसे बोलूं .तू बुरा तो नहीं मानेगा ना ..मैं आऊंगा तेरे पास . गोलज्यू के थान पूजा दूंगा ..नारियल ,घंटी चढाऊंगा .. बाहर से जरूर बदल गया हूँ पर अंदर से अभी भी वैसा ही हूँ रे ..तू फिकर मत करना हाँ..
ना जाने क्या-क्या लिख डाला, ना जाने कितनी नराई लगा बैठा .बहुत से शब्द आपकी समझ में नहीं आये होंगे ना…अभी क्षमा करें ..हो सका तो अर्थ बाद में बताऊंगा.
अप्रैल 8, 2007
Posted by kakesh under
बहस
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कल स्वामी जी से मुलाकात हुई तो उन्होने ब्लौग लिखने के कई तरीके बताए. कई नयी बातें सीखने को मिली. य़े सत्य है कि आज भी हिन्दी चिट्ठाकरिता में उस विविधता की कमी है जो अन्य भाषाओं के ( विशेषकर अंग्रेजी ) के चिट्ठों में मिलती है लेकिन विकसित और विकाशसील का अंतर समाप्त होने पर ये विविधता अपनी हिंदी में भी आ जायेगी. स्वामी जी के लेख से प्रेरित हो आज कुछ नया (और मौलिक ) लिखने का प्रयास कर रहा हूं.
कुछ बातें यादों के रूप में आपसे चिपक जाती हैं . उनको आप अपने आप से बाहर नहीं निकाल सकते . उन्हीं यादों को जब आप मुड़कर देखते हैं तो “नराई” ( नॉस्टालजिया ) जैसा भाव पैदा होता है. ऎसे ही किसी “नराई” के बारे में लिखने बैठा हूं पर पहले कुछ और…..
हम , लोगों को जज करके एक खांचे में फिट कर देते हैं और फिर उन्हें उस खांचे से बाहर नहीं देख पाते . बहुत से सृजनात्मक माध्यम जैसे लेखन और फिल्म में यह बात अधिकांशत: लागू होती है . हम भारतीयों में यह खांचा बनना शुरु होता है किसी व्यक्ति के नाम से जिसमें उसका सर-नेम (जाति) भी आ जाती है .यदि मैं अपने ‘काकेश’ नाम से मुसलमान या हिन्दू विरोधी बात करूं तो पाठक उसे किसी और नजर से देखेंगे और यदि ठीक वही लेखन मैं किसी और नाम जैसे ‘क़माल अशरफ़’ से करूं तो उसी बात को पाठक किसी और नजरिये से देखेंगे .और फिर दूसरा खांचा बनता है व्यक्ति के व्यवसाय (प्रोफेशन) से .यदि मैं बोलूं कि मैं डाक्टर हूं तो मेरे स्वास्थ्य संबंधित लेखों की उपयोगिता लोगों की नजर में बढ़ जाएगी. आप कहेगें कि ये बात तो ठीक ही है कि एक डाक्टर की बात ज्यादा प्रमाणिक लगेगी ही .हाँ यह ठीक है पर आप तो लेखक की कही बात का ही भरोसा कर रहे हैं ना .कोई उसका प्रमाणपत्र तो सत्यापित नही कर रहे. ऎसे बहुत से खांचे हैं .एक ऎसा ही खांचा है अपने जन्मस्थान का . बहुत से हिन्दी चिट्ठों में भी ये खांचा प्रयोग होते दिखा. मैं यदि कानपुर की ठग्गू के लड्डू और बदनाम कुल्फी की दुकान या परेड के बाहर बिकती हुई सस्ती किताबों या फिर आर्यनगर की बिरयानी का जिक्र करने लगूं तो लोग समझेंगे कि मैं कान्हेपुर का हूं और फिर मेरे लेखन को भी स्तरीय समझने लगेगें :-). हाँलाकि देर सबेर अच्छा लेखन ही सराहा जाता है लेकिन चिट्ठाकारिता जगत में जहां एक रचना की उम्र बहुत ही छोटी होती है वहां ये खांचे लोगों की पठनीयता निर्धारित करते हैं और ब्लौगजगत में सफलता का पैमाना अच्छा लेखन नहीं अच्छी हिट्स होती हैं . अच्छी हिट्स ही अधिक टिप्पणीयों की जननी है और अधिक टिप्पणीयां ही आपकी लोकप्रियता और कमोबेश आपके अच्छे लेखन का मानक. यानि परोक्ष रूप से हम भी ये मानने लगे हैं अच्छा लेखन वही है जो ज्यादा पढ़ा जा रहा है बिल्कुल फिल्मी दुनिया की तरह .जहां बाक्स ऑफिस की सफलता ही एक अच्छी फिल्म की पहचान है ( जहां दादा कोंडके की “अंधेरी रात में….” गुरुदत्त की “कागज के फूल” से ज्यादा अच्छी फिल्म है ) . ये व्यवसायीकरण है..तो क्या हम हिन्दी चिट्ठाजगत को भी व्यवसायीकरण की ओर ले जा रहे हैं.
अभी हिंदी चिट्ठा जगत में लिखने वाले कम हैं किंतु हमारे आज के छोटे-छोटे कुछ कदम हमारे चिट्ठा जगत के भविष्य को निर्धारित करेंगे. जैसा कि कयास लगाया जा रहा है कि आने वाले समय में हिन्दी माध्यम से लिखने वालों की संख्या बहुत अधिक हो जायेगी तो नये चिट्ठाकारों के लिये हमारे ये मानक उनके लिखने के तौर तरीके निर्धारित करेंगे. यदि हम अंग्रेजी भाषा के ब्लौग्स को ही फॉलो करेंगे तो फिर यहां भी लोग उन विषयों को ज्यादा लिखेंगे जिनसे पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जा सके ( अभी भी भड़काऊ शीर्षक लगाकर अपने चिट्ठों में खीचने वाले चिट्ठाकारों की कमी हिन्दी चिट्ठाजगत में नहीं है ) . तब फिर लोग हिट्स के लिये ही लिखेंगे फिर स्वांत: सुखाय वाली भावना गौण हो जायेगी …तो क्या ऎसे में स्तरीय लेखन संभव होगा.
बहुत से लोग ये तर्क देंगे कि ये सब तो अंग्रेजी चिट्ठा जगत में ऎसे ही चल रहा है .य़े सच है इसीलिये वहां पौर्न लिखने वाले चिट्ठाकार ज्यादा चर्चा में रहते हैं और उनमें से कई व्यवसायिक रूप से ये लेखन कर रहे हैं और फिर ये आवश्यक तो नहीं कि जो अंग्रेजी चिट्ठा जगत में हो रहा है हम भी उसी का पालन करें हमारा देश भारत तो विश्व-गुरु रहा है कई मायनों में..तो क्यों ना यहां भी हम कुछ नया और मौलिक इस चिट्ठा-विश्व को दें.
य़े कुछ मुद्दे हैं जिनपर विचार करने की आवश्यकता है. हम मात्र मूक-दर्शक (फेंससिटर) बन कर नहीं रह सकते…
शेष फिर …… अगली पोस्ट में ..अभी तो चलें ऑफिस …
अप्रैल 8, 2007
कल जब अपनी नयी प्रयोगात्मक पॉड्कास्ट को फाइनल टच दे रहे थे कि कहीं से आवाज आयी.
का गजब हुआ जब लव हुआ ….. का गजब हुआ जब लव हुआ ..
गांव के गँवार छोरे को जब शहर की स्मार्ट लड़की से प्यार हो जाता है तो वो जैसे खुश होकर इधर उधर डोलता है वैसे ही कुछ अंदाज में जूता महाशय ने कमरे में प्रवेश किया. पिछ्लों दिनों की घटनाओं से तो हम सोच बैठे थे कि जूता महाशय कहीं पिट पिटा रहे होंगे लेकिन उन को इस तरह देख कर घोर आश्चर्य हुआ. हम पौड्कास्ट के प्रयोग से काफी थक चुके थे फिर भी हमने पूछ ही लिया क्या हुआ महोदय बड़े खुश नजर आ रहे हो.
दो कारण हैं हमारे खुश होने के …एक तो ये कि तुम्हारी दुकान नहीं चल रही और दूसरी यह की हमारी दुकान चल निकली.
हम तो कुछ समझे ही नही थे इसलिये पूछ बैठे.
क्या मतलब ?
देखो तुम अभी ये ब्लौग का नया धंधा शुरु किया ना और फिर अपनी पूरी फैमिली को लेकर नया नया माल टिकाने की कोशिश कर रहा है ना … तो ना तो तेरा धंधा चल रहा और ना ही तेरा माल बिक रहा .
बिक नहीं रहा.. मतलब ?
यही कि कितना लोग तेरे ब्लौग पे आता है….कितना हिट्स मिलता है तेरे को.
नहीं… लोग पढ़ते तो हैं ना.
खाक पढ़ते हैं ..अरे तेरे से ज्यादा हिट्स तो वो सैक्सी फोरवर्डेड पिक्चर चेपने वाले को मिल जाता है ..और वहां कमेंट्स भी मिलते हैं ढेरों .
लेकिन वो तो सिर्फ टाईम पास के लिये होता है और वहां तो लोग केवल टाइम पास के लिये ही जाते हैं.
तो तेरे ब्लौग को कौन सा लोग ज्ञान प्राप्ति के लिये पढ़ते हैं ..तू भी तो टाइम पास ही लिखता है..
लेकिन मैं तो ब्लौग के माध्यम से कुछ संदेश भी देना चाहता हूं.
वो तो तेरे को लगता है ना ..यदि तू अच्छा लिखता तो तेरा नाम भी ब्लौग की टी.आर.पी रेटिंग में होता ना.
देखो जूता महोदय …ना तो मैं हिट्स के लिये लिखता हूं ना ही किसी रेटिंग …
उसने मेरी बात को अनसुनी करते हुए कहा ..और तो और अब तेरे को अप्रगतिशील साहित्य की श्रेणी में भी डाल दिया जायेगा… तो क्या तू भी अब मेरे को छोड़ , कुत्ते पे लिखेगा ?? मेरा मजाक सा उड़ाते हुए आवाज आयी.
मेरे को कुछ भी समझ ही नहीं आ रहा था कि जूता महोदय क्या बोल रहे हैं किंतु उन्होने बोलना जारी रखा ..इस बार मजाक उड़ाने की नहीं बल्कि समझाने वाले अंदाज में ..
देखो चपड़गंजू तुम अभी ब्लौग-जगत में नये नये आये हो ..यहां भी फिल्मी जगत की तरह पहले से ही अमिताभ और शाहरुख बैठे हैं जिनके सिर्फ नाम से ही फिल्में बिकती हैं .तुम भी कुछ दिन यहां रहो अपना काम अच्छा करो ..फिर जब काम अच्छा होगा तो नाम भी होगा ..फिर लोग तुम्हें भी पढ़ेंगे..
उनकी बात अब कुछ कुछ समझ आने लगी थी…उसी समय एक कहानी भी याद आयी लेकिन वो बाद में ..अभी तो अपने वार्तालाप को ही आगे बढ़ाते हैं.
लेकिन आपकी दुकान कैसे चल निकली ..क्या आपकी जूती जी से सुलह हो गयी ..
सुलह ..अरे कलह हुआ ही कहाँ था जो सुलह होती..
लेकिन उस दिन तो आपका झगड़ा हो रहा था ना…
अरे किस पति पत्नी में झगड़ा नहीं होता .और फिर हम भारतीय पति-पत्नियों की यही तो खासियत है ना कि हम कितना भी झगड़ें ज्यादा देर एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते ..
लेकिन वो आपकी प्रेमिका वाली बात पता चल गयी थी ना ..
हाँ उसको लेकर झगड़ा तो हुआ था पर हमने अपनी गलती मान ली और कान पकड़ लिये कि आगे से ऎसा नहीं होगा और जूती ने भी एक अच्छी भारतीय पत्नी की तरह हमें माफ कर दिया…बल्कि इस घटना के बाद तो हमारे रिश्ते और भी अच्छे हो गये हैं ..इसीलिये तो मैं शुरु में गाना गा रहा था ..का गजब हुआ….
ओ..इसलिये गा रहे थे ..हमने तो सोचा था…
..और हां जूती ने एक बात तेरे लिये भी बोली है कि तू अब सैंडल की बात नहीं मानेगा ….
मतलब…!!
मतलब ये कि ..तू ये जो मोटी-मोटी किताबें लेकर हमारा इतिहास-भूगोल खंगाल रहा है अब वह इतिहास नहीं लिखने का ..
अरे ..लेकिन मैने ये जो जानकारी जमा की है उसका क्या …
वो तो तू फिर कभी यूज कर लेना अभी तो इस एपिसोड को खतम कर…
ठीक है ठीक है ..लेकिन एक बात बताओ यार ( अब मैं थोड़ा खुल गया था ) तुम्हें तो अपने इतिहास के बारे में पता है ना…
ज्यादा तो नहीं ..बस इतना ही …कि हमारे जन्मदाता कोई आदिदास जी थे..
आप कहीं संत रैदास की बात तो नहीं कर रहे ना..
ना ..ना…वो आदिदास ..कहीं अंग्रेजी में पढ़ा था ..ADIDAS…
मेरे समझ में बात आ गयी और मैं मन ही मन हँसा और फिर मैने जूते महोदय से विदा ली…..
तो क्या करूं दोस्तो अब चुंकि वादा किया है इसलिये अब जूते का इतिहास तो फिर कभी लिखुंगा …अभी इतना ही …

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