चाह थी एक ‘सभ्य दुनिया’ में ,कदम जब मैं बढ़ाऊं
लोग मेरा प्रेम से स्वागत करें, और गीत गायें
इन रास्तों पर चल चुके पहले कभी,
वो ही मेरे
पथ प्रदर्शक बन ,
गले अपने लगा लें

चाह थी..
कोई जब उंगली पकड़कर ,साथ मेरे यूं चलेगा
नित नयी मंजिलों से ,रूबरू मैं हो सकुंगा
और संग में गीत गांऊगा ,सदा मैं प्यार के ही
प्रीत बाटूंगा सदा मैं ,मीत सब का बन सकुंगा

जोड़ पाऊंगा नये अध्याय मैं इतिहास में
देख पाउंगा मैं दुनिया को, नये एक रंग में

मिल रहे थे मीत कुछ , उत्साह से प्रारम्भ मे
कर रहे उत्साह-वर्धन ,तालियां दे दे मेरा

लिख रहा था मैं भी तब, नूतन सृजन के वृंद , छंद
भावना में बहके मैं, मुस्कुराता मंद मंद

यह नया संसार मुझको , रास अब आने लगा था
कायदों से ‘सभ्य दुनिया’ के रहा मैं, अपरिचित
और अति उत्साह में मुख खोल के गाने लगा था

तब कहीं कुछ घट गया ,और बंदूके तनी
रास ना आया मेरा , इस कदर मुंह खोलना

सभ्यता के नायकों को भाया नही यह गीत था
पीठ पर छूरा जो भौंके वो तो सबका मीत था

सृजन के उन शिल्पियों ने , ख्वाब जब तोड़ा मेरा
“धूमकेतु” बनके अब मैं ,ढूंढता हूं मंजिलों को

कितु जीवन कुछ नही, बस खुदा का खेल है
एक पल लड़ना यहां ,अगले पल फिर मेल है

काकेश

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